पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२१९

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अंकरण २ श्लो० ६२ [ २११ अब ब्रह्म आत्मा की एकता के साक्षात्कार अर्थ कही जो अखंडाकार वृत्ति है उस वृत्ति का महात्म्य दिखलाया जाता है एषाऽनादि त्रितापज्वर विषम भव व्याधि सम्यक चिकित्सा ह्यषा स्वाराज्य संपन्निरवधि परमानन्द संदोहदोग्धी । भस्मीभूतं तथास्यां प्रभवति न पुनः कर्म बीज प्ररोदु' संदेहग्रन्थि भेदावपि च निगदितावेतदासादनेन ॥६२॥ यह ब्रह्माकार वृति अनादि तीनों तापों की विषम ज्वर रूप जगत् व्याधि की यथार्थ श्रौषधि है, यह स्वाराज्य का खजाना है, श्रवधि रहित परमानंद समुद्र की प्राप्ति कराने वाला है । उसने भस्म किये हुए कर्मबीज जन्म रूप संस्कार उत्पन्न करने में असमर्थ हैं। इस प्रकार श्रखंडाकार वृत्ति की प्राप्ति से चिज्जड़ग्रन्थि की अत्यंत निवृति श्रुति में कही है ॥६२॥ जैसे कफ पित्त वात के प्रकोप जन्य ज्वर की चिकित्सा कठिनाई से होती है अर्थात् इस ज्वरका नाश करना बड़ा कठिन होता है तैसे ही (श्रनादि त्रिताप ज्वर विषमभव व्याधिसम्यक चिकित्सा एषा) आध्यात्मिक, श्राधिदैविक और आधिभौतिक रूप त्रिताप ज्वरों से विषम अंर्थात् दुश्चिकित्स्य अनादि संसार रोग की यह अखंडाकार वृत्ति ही सम्यक् चिकित्सा है अर्थात्