पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२१८

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स्वाराज्य सिद्धिः

कतकरज इवोदस्य पंक जलस्य ॥६१||

जैसे दो काष्ठों के घर्षण से श्रमि. उत्पन्न होती हैं। और तृणों को जलाकर स्क्यं शांत हो जाती है, जैसे कतक बीज जल को निर्मल करके नीचे वैठ जाता है, तैसे ही उपनिषत वाक्येों के विचार से शीघ्र ही ब्रह्माकार वृति उत्पन्न होती है और अज्ञान सहित संपूर्ण द्वैत समूह को जलाकर श्राप भी नित्य संज्ञा वाले परम सुखरूप नित्यसिद्ध श्रात्मतत्व में नाश को प्राप्त होती है ॥६१॥

(अरणुिवेिवमथनान् वहेिकील इव) जैसे दो काष्ठकें संघर्षण में अग्नि ज्वाला उत्पन्न होती है, (इत्थं वाक्यात् विमृष्टातू सद्यः संभूतास्वंदवृति: ) इमी प्रकार उक्त रीति से उपनिपदों के वाक्यां के विचार से शीघ्र ही ब्रह्माकारवृत्ति उत्पन्न होती हैं । ( तृगणं इव ) जैसेने काष्ठ मथन मे उन्पन्न हुई वह्निज्वाला तृणों को दा करके श्राप भी शान हो जाती हैं और ( कत्तकरज इव जनस्य पंक्र उदम्य) जैमे कतक बीज का राज जलकी निर्मलता करने श्र जल में मिला हुश्रा जल कं पंक को भ्एकस्थान में इकट्रा करके आप भी उम्में ही लय को प्राप्त हो जाता है तैसे ही वाक्य विचार में उत्पन्न हुई ब्रह्माकारवृत्ति भी (श्रखिल द्वन जालं संमोहं दग्ध्वा निर्वागणुसंज्ञे निरतिशय सुखे नित्य सिद्धात्मतत्व सद्यः प्रणाशं यातेि ) श्रज्ञान के सहित संपूर्ण द्रत ममूह को दग्ध करके श्राप भी नित्य कैवल्यम्संज्ञक परम सुख रूप सनातन आत्म स्वरूप में नाश को प्राप्त हो जाती है।६१ ।।