पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२१७

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प्रकरणं 2 श्लो० 61

( नित्यं ) एकरस (शुद्धं) निर्दोष (विबुद्धम् ) चेतन रूप विकृतिविरहितम्) छः भाव विकारों से रहित (नित्यमुक्त वभावम्) सदा मुक्तस्वभाव (सत्यम्) त्रिकालाबाध्य (सूक्ष्मम्) यूलपने से रहित (निरस्तद्वयम्) द्वैत से रहित (श्रनवयवम्) रवयव (पूरम्)ि व्यापक (श्रानंद रूपम्) सुख स्वरूप प्रत्यक्) सर्व अन्त:करणों का साक्षी स्वरूप (ब्रह्म ) ब्रह्म अहं अस्मि) मैं हूं अर्थात् नित्यादि लक्षण जो ब्रह्म है सो ब्रह्मा ही हूं। इसलिये (प्रसंगे सुखसत् ज्योतिः आत्मनि स्वरसदृशि यि ) सर्व श्रवस्थाश्रों के संबंध से रहित, श्रानंद, सत् श्रौर तन स्वरूप, स्वाभाविक प्रकाश रूप मेरे में (एतत् विश्वं न [ासीत् अस्ति भविष्य ति श्रपि रवौ ध्वान्तवत्) सूर्य में iधकार के सदृश यह सर्व जगत् न पहले ही था न अब है न [ागे होवेगा । भाव यह है ब्रह्म आत्मा के एकत्व ज्ञानका फल ल सहित के जगत् रूप अनर्थ की निवृत्ति और नित्य परमा न्द स्वरूप रूप से स्थिति है।॥६०॥

ब्रह्म से भिन्न ऐक्य ज्ञान विद्यमान है । इसलिये श्रद्वैत सिद्धि हीं हुई, इस प्रकार की शंका की अब ब्रष्टांत से निवृत्ति

त्थं वाक्याद्विमृष्टादरणि विमथनाद् वह्निकीलेव

सद्यः संभूताखंड वृतिस्तृणमिव निखिल द्वेत

तालं समोहम् । दग्ध्वा निर्वाणसंज्ञे निरतिशय

मुखे नित्य सिद्धात्मतत्त्वे सद्यो याति प्रणाशं

१४ स्वा. सि.