पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२१६

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२०८ ] : स्वाराज्य सिद्धि ............................ ....................................

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~ =* - मर्वम्’ इस प्रकार उपक्रम में ही सर्व जगात का प्रणव में अभेद् कल्पना करके अनंतर (पादान् विभज्य ) प्रणव के पदों का पृथक् पृथक् निरूपण करके (प्रविलाप्य) जगत् रूप तीन पादों को चिद् ब्रह्म रूप लक्ष्यमें अर्थात् अर्धमात्रा रूप तुरीयपाद रूप से प्रसिद्ध वेतन ब्रह्म रूप लश्यमें क्रम से लय करके (शिष्टः ) जो लक्ष्यश्रमात्र चेतन रूप पाद शेष है वही एक श्रात्मा है । इस श्लोक में तीन पाद् वाच्यार्थ रूप हैं और तुरीय पाद लक्ष्य रूप है यह विभाग जानलेना ॥५९॥ इस प्रकार विचार कर चारों वेदों के उपनिषदों के तात्पर्य निर्णय से ब्रह्म और आत्मा की एकता का ही निश्चय होता है अब उस ब्रह्मा और श्रात्मा की एकता का उपयोग दिखलाते हैं नित्यं शुद्धं विबुद्ध विकृति विरहितं नित्य मुक्त स्वभावं सत्यं सूत्मनिरस्तद्वयमनवयवं नन्दरूपम् । प्रत्यग ब्रह्माहमस्मि स्वरसदृशि रवो ध्धांतवटु विश्वमेतन्नासीदस्त्युद्भविष्यत्यपिमयि सुखसज्ज्योतिरात्मन्यसंगे ॥६०॥ नित्य, शुद्ध, चतन स्वरूप, विकृति राहंत, नित्यमुक्त स्वभाव, सत्य, सूक्ष्म, द्वैत रहित, निरवयव, व्यापक, श्रानंद स्वरूप, साक्षी ब्रह्म मैं हूँ । सब अवस्थाओं में असंग, श्रानंद, सत् चेतनस्वरूप स्वप्रकाश सूर्व मुझमें अंधकार के समान यह सब जगत् ज्ञ था, न है, न होगा ॥६०॥ -