सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२१५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ 208
प्रकरणं १ श्लो० 51

चिदानन्द एक स्वभाव निज श्रात्मा को संशय रहित होकर जान् गया । (एतत् विमृश्य विदिताद्वय दृक् परोपि) और इस प्रकार भी कोई अधिकारी इस उक्त उपनिषत् के तात्पर्य को विचार करके जानकर अद्वैत और सर्व साक्षी प्रत्यग् श्रात्मा के चिंतन परायण हुआ (स्वाराज्यसौख्यं अधिगम्य) स्वप्रकाश रूप सुख को प्राप्त होकर ( भवेत्कृतार्थ:) कृतकृत्य हो जावेगा । मांडूक्योपनिषद्गत ‘अयमात्मा ब्रह्म' इस महा वाक्य का भी अखंडार्थ ही है, यह अब दिखलाते हैं
ऐक्यं प्रकल्प्य प्रणवेऽखिलस्य पादान् विभज्य
प्रविलाप्य शिष्टः । एकः स श्रात्मा जगदेऽय
मात्मा ब्रह्मति विस्पष्टमथव्वाण्या ॥५९ ।।
सब जगत की एकता की कल्पना करके उसके चारों पादों का भिन्न रूप निरूपण करके उनका फिर खय करके शत्र चेतनमात्र एक आत्मा है और यह आत्मा ब्रह्म है ऐसा अथर्वण वेद में स्पष्ट ही कहा है ॥५९॥ (अथर्ववाण्या) अथर्ववेद की मांडूक्योपनिषत् की श्रुतेि ने (श्रय श्रात्मा ) श्रमस्मत् प्रत्यय का विषय सत्यानंद चेतन रूप त्वं पदार्थ प्रत्यगात्मा तथा (ब्रह्म ) सत् चित् श्रानंद रूप तत्/ पदार्थ ब्रह्म रूप है (इति) इस प्रकार कहकर (विस्पष्टम् ) विशेष स्पष्ट रूप स ( स एकः श्रात्मा ) सा श्रात्मा एकही है ऐसा (जगदे) कहा है। सो एक श्रात्मा कौन है इस जिज्ञासा के होने मर कहते हैं (प्रणबे श्रखिलंस्यऐक्यंप्रकल्य)'श्रोमित्येतदक्षरमिदं