पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२१४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ ५
स्वाराज्य सिद्धिः ३

}}

से पकड़ा हुआ राज प्रधान पुरुषों के पूछने से कहता है कि मैंने चोरी नहीं की, इस प्रकार सत्याभिसंधान करने वाला होने से तप्त परशु के पकड़ने पर भी चोर की तरह दाह बंधनों को प्राप्त नहीं होता । तैसे ही (यदात्मा) जो सत् ब्रह्मा रूप ज्ञानं श्रात्मामें धान रूप सत्य भाषण करता है वह पीड़ा और दाह को तथा पुनः मरणादि रूप बंधन को मूढ़ वत् प्राप्त नहीं होता । ( सत् ब्रह्म तत्त्वमसि ) इसलिये हे श्वेतकेतो, वह ब्रह्म तू ही है । (बंध शंकां निणुद ) बंध शंका को तू दूर कर । श्रब प्रकृतोपदेशका उपसंहार करते हुए श्रांचार्य सर्वउपदेशं का तात्पर्य बतलाते हैं
पित्रा सुतः सुवचनैरिति बोधितः स्वं सत्या
द्वितीयसुखबोध घनं विजज्ञो । एतद्विमृश्य विदिता
द्वय दृक् परोपि स्वाराज्यसौख्यमधिगम्य भवेत्।
इस प्रकार पिता के श्रेष्ठ वचनों से दिये हुए उपदेश से नित्य चिदानंद स्वरूप आत्मा को श्वेतकेतु ने संशव रहितं जाना, वैसे ही और भी कोई अधिकारी पुरुष अद्वय सर्व साक्षी को विचार कर जानेगा तो वह भी साम्राज्य सुख को प्राप्त होकर कृतकृत्य होगा ॥५८॥ (इति पित्रा सुवचनैः सुतः बोधितः) इस प्रकार पिता उदः लक ने सुन्दर वचनों से श्वेतकेतु को बोध किया । फिर बोध कोः प्राप्त हुआ श्वेतके ( सत्याद्वितीयसुखबोघनंस्वं विज्ज्ञौ) नित्यः