प्राप्त नहीं होता। वह आत्मा सत् ब्रह्म तू है, बंधन की
शंका दूर कर ॥५७॥
( स्तेन इव प्रतप्त परशोः दाह बंधौ श्राप्तोति) जैसे कोई
अनृतवादी चोर राजघर में प्रतप्त परशु से प्रथम दाह दु:ख को
प्राप्त होकर फिर बंधनागार को यानी जेल को प्राप्त होता है ।
भाव यह है कि किसी चोर पुरुष को हाथों में हथकड़ी लगाकर
राज पुरुष न्यायालय में लेगये । सभापति आदिक राज प्रधान
पुरुषोंने पूछा कि इस पुरुषने क्या किया है ? तब राज पुरुषोंने
उत्तर दिया कि इस पुरुष ने इस पुरुष के धन को चुराया है ।
तब सभापति को संशय हुश्रा कि इसने चोरी की है वा नहीं
की । ऐसे संशय युक्त होकर सभापतिश्रों ने पूछा कि क्या
तुमने चोरी करी है ? उसने आगे उत्तर दिया कि नहीं। जब किसी
प्रकार से भी सभापति का संशय दूर न हुआ तब सभापति ने
कहा कि इसकी अब दिव्य परोक्षा की जायेगी । तब परशु तपा
कर उस पुरुष के हाथों में धर दिया गया । यदि वह पुरुष चोरी
का तो करने वाला है परन्तु ऊपरसे कहता है कि मैंने चोरी नहीं
की, तब उस पुरुषके हाथ दग्ध हो जाते हैं और कारागृह में बांधा
जाता है और यदि वह पुरुष चोरी का कर्ता नहीं होता. तो सत्य
के प्रभाव से परशु के पकड़ने पर भी वह दग्ध नहीं होता, उलटा
राज प्रधान पुरुषों से वा साक्षात् राजा से भी अर्चित और पूजित
हुआ मिथ्या बंध मुक्त होजाता है—तैसे ही '(मूढ मति अपि
श्रनृताभिसंधः ठयथते). अज्ञानी भी अनात्मा में आत्मत्वानुसं
धानरूप मिथ्या भावी होने से मृत्यु रूपी तप्त परशु से पीड़ा रूप
दाद्द को प्राप्त होकर फिर जन्मादिक बंधन को प्राप्त होता है।
(अथ सत्याभिसंधिः) और जैसे कोई साधु पुरुष वीर भ्रम
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प्रकरणं 3 श्लो० 38