पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२१२

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स्वाराज्य सिद्धिः

उस सत् रूप परब्रह्म में प्राप्त होकर मृत्यु का ठग लेता है अर्थात् मैं मरता हूं, इस प्रकार मूढ़ के समान ज्ञानी नहीं जानता, क्योंकि इसके प्रथम ही उसका श्रज्ञान निवृत्त हो गया है इसी कारण ही यह ज्ञानी पुनः जन्म परम्परा को प्राप्त नहीं होता । (सत त्रह्मा तत्त्वमसि ) ऐसा सत् रूप ब्रह्म तू ही है। इस कारण, हे प्रेय दर्शन, तू (मृत्यु बंधं निस्तर) मृत्यु रूप बंधन को तरजा श्रर्थात मरण को वा मरण के भय को तू प्राप्त मत हो ।॥५६॥
लौकिकसर्व ही व्यवहार ज्ञानी श्रौर श्रज्ञानी दोनों का समान है। सत् की प्राप्ति भी ज्ञानी और श्रज्ञानी दोनों को समान रूप से मरणांत में होती है। फिर क्या कारण है कि ज्ञानी तो सत् ब्रह्म को प्राप्त होकर फिर इस जन्म बंधन को प्राप्त नहीं होता और प्रझानी भरकर सत् को प्राप्त हुआ भी फिर जन्मबंधन को ही प्राप्त होता है ? इस शंका का समाधान भी ऋष्टांत देकर अब किया जाता है ।
स्तेन प्रतप्त परशोरिव दाहबन्धावाप्नोति मूढ
मति रप्यनृताभिसंधः । सत्याभिसंधिरथ न
व्यथते यदात्मा सद् ब्रह्म तत्त्वमसि निर्गुद
“मैंने चोरी नहीं की है? ऐसे असत् अनुसंधान करने वाले चोर को तपाया हुआ परशु दाह करता है और वह बंधन को प्राप्त होता है, सत् का अनुसंधान करने वाले को नहीं । वैसे ही ज्ञानी सत् आत्मानुसंधान करने से धन को