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स्वाराज्य सिद्धिः

इस अनादि संसार रोग को यह ब्रह्माकार रूप अखंडाकार वृत्ति ही नाश करती है तथा (एषा हि स्वाराज्य संपत्) यह अखंडा कार वृत्ति ही स्वाराज्य संपदा है। स्वराट् नाम इन्द्र का है, तद् भावरूप संपत् स्वाराज्य संपत् है । यह भी ब्रह्माकार वृत्ति है ( निरवधि परमानन्दू संदोह दोग्ध्री ) अपरिच्छिन्न, परमानंद समुद्र की प्राप्ति कराने वाली भी यह अखंडाकार वृत्ति ही है । (अस्यां भस्मीभूतं कर्मबीज पुनः प्ररोढु न प्रभवति ) इस ज्ञानाग्नि रूप ज्वाला के होने पर भस्मीभूत अविद्या काम कर्म रूप बीज फिर जन्म रूप अंकुरों के उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता । (एतत् श्रासादनेन संदेह ग्रन्थिभेदौ अपि निगदितौ च) तथा इस अखंडाकार वृत्ति की प्राप्ति से प्रमाणगत संशयों की, प्रमेयगत संशयोंकी तथा अनात्म तादात्म्याध्यास रूप चिजड़ मंथि की अत्यन्त त्रिवृत्ति भी श्रुतिश्रों ने कथत की है।॥६२॥

इति श्रीमत् गंगाधरेन्द्र सरस्वती प्रणीत स्वाराज्य सिद्धौ श्रपवादाख्य द्वितीय प्रकरणे सरलान्वय पद्य काशिकाऽऽख्या भाषा टीका समाप्ता ।