पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२०५

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प्रकरण २ श्लो० ५३

निकल जाता है वही वही शाखा आदि अवयव सूखता जाता है और जब सारे वृक्ष से निकलता है तब सारा ही वृक्ष सूख जाता है। इस जीव रहित वृक्ष के सूखने रूप लिंग से वृक्ष आदिकों से आत्मा पृथक् है ऐसा सिद्ध होता है, तैसे ही, ( तनुत: परोऽस्ति आत्मा ) देह से आत्मा पृथक् है । (स च नित्यः एकः ) और वह आत्मा नित्य है तथा एक हैं। आत्मा की उत्पत्ति और प्रलय तो देह के ग्रहण तथा परित्याग स ह परमाथ स नहा । श्रात्मा का अनकता भी उपाधि से ही है, है परमार्थ से नहीं। इस कारण, हे श्वेतकेतो, (एतदात्म्यं श्रखिलं वितथद्वितीयं विद्धि) यह संपूर्ण मिथ्या द्वैतरूप जगत् इस प्रकार का है ऐसा तू जान । इससे आत्मा में विकारिता तथा श्रनेकता का निषेध हुआ (सत् ब्रह्म तत्त्वमसि मुच विभेद् मोहम्) वह सत्तूरूप ब्रह्म तू है इससे तू भेद्भ्रांतिकोत्याग।॥५२॥।
पूर्व आत्मा सत् विचार रहित. तथा अति सूक्ष्म अविनाशी तथा नित्य कहा ।
शंका-पूर्व उक्त उपदेश से जगत् की अनित्यता तथा स्थूलता सूचन की वह, ब्रह्म जगत् का उपादान है, इस सिद्धांत में श्रसंभव है, क्योंकि अत्यन्त सूक्ष्म को अत्यन्त स्थूल की उपादानता नहीं हो सकती । इस शंका का समाधान भी दृष्टांत से किया जाता है।
धानान्तरुन्नततरोरुवटः पुरेव यस्मिन्निद जगद।
चस्थितमाविरासीत् । श्रद्धावता समधिगम्य।
मणोरणीयः सटु ब्रह्म तत्वमसि सत्यमसत्य।
मन्यत् ॥५३॥।