श्रग्नि विस्फुलिंग जलबुद्बुद फेनाविकों के कारणभूत अग्नि का
जल भाव को प्राप्त होने से विनाश ही देखा है। तैसे सत् को
प्राप्त होकर जीव भी नाशको ही प्राप्त होंगे और सत् ब्रह्म विकारी
होगा, इस शंका की निवृत्ति भी दृष्टान्त से की जाती है।
जीव प्रह्रीस् तरु शोष विशेष लिंगादात्मा परो
ऽस्ति तनुतः स च निस्य एकः । विद्धयैतदा
त्म्यमखिलं वितथद्वितीयं सद् ब्रह्मा तत्त्वमसि
मुच विभेदमोहम् ।।५२!!
जीव से रहित हुआ वृक्ष सूख जाता है, इसी प्रकार
देह से श्रात्मा पृथक् है तथा वह आत्मा नित्य और एक
है ऐसा विादित होता है। इसी से यह संपूर्ण द्वैत रूप
मिथ्या जगत् श्रात्मा ही है और वह सत् ब्रह्म तू है ऐसा
जान भेद भ्रांति को छोड़ दे ॥५२॥
हे श्वेतकेतो, इस वृक्ष के मूल में परशु मारे तब भी रस टप
कता है और मध्य में मारे तब भी रस टपकता है और अग्रभाग
भे मारे तब भी रस टपकता है, क्योंकि घृक्ष भी जीव सहित है
और अपनी जड़ों से जल को पीता हुआ हरा भरा स्थित है।
( जीव प्रहीण तरु शोष विशेष लिंगात्) जीव से रहित हुश्रा
। सूख जाता है, फिर परशु आदिकों के प्रहार से रस को नहीं
ढ़ता और न जड़ोंसे जल को ही पीता है। जीव वृक्षसे न्यारा
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स्वाराज्य सिद्धिः