पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१७९

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प्रकरण २ श्लो० ३७ कथन किया है और श्रासेिपद नित्य सिद्ध वाक्य को वतमान में बोध कराता है ॥३७॥ इस श्लोक में भी छांदोग्यादिक श्रतिश्रा का ही संग्रह है, यह जान लेना । (प्राक् सर्गात् यत् सत् आसीत्) जो सत् रूप वस्तु सृष्टि से पहले थी ‘सदेव सोम्येदमम्र श्रासीत् इत्यादिक श्रुति उक्त अर्थ में प्रमाण है। (अथ यत् च असृजत् तेज आदि) अनंतर जीवों के कम के अनुसार जिस सत् रूप मायाशबल ब्रह्म ने अग्नि श्रादिकों की रचना की, इस अर्थ में भी ( तत् तेजोऽसृजत्) इत्यादि श्रुति प्रमाण तथा विद्यामान है ( यत् तस्मिन्प्रविष्ट जीव आसीत् ) जो सन् रूप ब्रह्म श्रपती रची हुई सृष्टि में प्रवेश करके अर्थात् उपाधि श्रवच्छिन्नता रूप प्रवेश करके जीव नाम से प्रसिद्ध हुश्रा ‘अनेन जीवे नात्मनानु प्रविश्य’ यह श्रुति उक्त अर्थ में प्रमाण है । ( अखिलं अननं नामरूपं वितेने) उसके अनंतर फिर ब्रह्मादिक जीवरूप से मिथ्या नाम रूप का जिस सत् रूप ब्रह्म ने विस्तार किया है, ‘जीवेनात्मनानु प्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि' श्रुति इस उक्त श्रर्थ में प्रमाण है, ( तत् सत् सत् शव्द वेद्यम) सो सन् रूप ब्रह्म तस्वमसि मठ्ठा वाक्य में तत् शब्द का वाच्य है। (त्वं इति श्वेतकेतु श्राख्यजीवो निगदितः ) ‘तत्त्वमसि श्वेतकेतो इम् वचन में पिता प्रारुणी ने श्वेतकेतु नाम के जीव की त्वः पन्द्रका ऋाच्य कथन किया है । ( प्रसिपदं नित्यू सिद्धं वाक्यार्थ गमयत् . वर्तमानं ब्रवीति ) अँऔर श्रसि यह वर्तमान अर्थक मध्यम पुरुष का क्रिया प्रयोग नित्य सिद्ध वाक्यार्थ को बोधन कृस्ला हुश्र वर्तमान अर्थ की कथन करता है ।३७॥ [ १७१ अन्वय का प्रक् र दिखाते हैं