पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१७८

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स्वाराज्य सिद्धिः


ईश्वर के स्वरूप लक्षण की एकता जैसे है तैसे ही सम्यक निश्चय की जाती है। इस प्रकार तत्व पदार्थों के स्वरूप लक्षण की एकरूपता निश्चय होने पर अनंतर (आदि अंतावेक्षणाचै अधिगत हृदयानि तत्त्वमस्यादि वाक्यानि निष्प्रत्यूहं अंजसैव निजार्थ समधिगमयितु' क्षमन्ते ) उपक्रम उपसंहारादि तात्पर्य निर्णायक षट् विध लिंगों के विचारादिकों द्वारा निश्चित अभि प्राय वाले तत्त्वमस्यादि महावाक्य निर्विघ्नतया, साक्षात्, शीघ्र तथा जैखे है तैसे ही श्रखंड प्रत्यक् अभिन्न चिद्रूप निज अर्थ के सभ्यक् निश्चय कराने के लिये समर्थ होते हैं।॥३६॥
पदार्थ ज्ञान के प्राधीन वाक्यार्थ ज्ञान होता है. इसलिये तत त्वं असि इन पदों के अर्थ को अब दिखलाया जाता है
प्राक सगद्यत्सदासीदस्जदथ च यत्तेज आदि प्रावष्ट जावस्तास्मन् यदासायदाखलमन्मृत नामरूपं वितेने । तत् सत्तच्छब्दवेदयं त्वमिति निगदितः श्वेत केत्वाख्य जीवो वाक्यार्थ नित्य सिद्धं गमयदसिपदं वर्तमानं ब्रवीति ।। ३७॥
सृष्टि के पहिले जो सत् वस्तु थी उसने अग्नि श्रादिकों को रचा और उसमें प्रवेश कर वह जीव हुआ तथा ' सब असत् का नाम रूप से विस्तार किया । । इस श्रुआत में कहा हुआ सत् तत्वमास म तत् का वाच्याथ ह श्रार तु इस प्रकार से श्वेतकेतू नामक जीव को त्वं पदका वाच्य <