पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१६९

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प्रकरणं १ श्लो० 31

इसलिये परमार्थ सुख रवरूप व्यापक ब्रह्मा ही है । भूमाशब्दका अर्थ व्यापक ब्रह्म है। ( सर्वप्रत्यक्त्ववादात्) परम प्रेमकेश्रास्पद रूपसे प्रसिद्ध जो सर्व प्रत्यगात्मा है उस सर्व प्रत्यक् आत्मा को ही ब्रह्मा कहते हैं। भावार्थ यह है कि सर्व प्राणिश्रोंका अपने में परम प्रेम देखा जाता है अत: आत्मा की सुखरूपता सर्व प्राणिमात्र को अनुभूत' है और ब्रह्म की अन्यगात्मरूपता तत्सृष्टा तदेवानुप्राविशत्’ ‘स वा एप महानज आत्मा योयं विज्ञानमयः' इत्यादि श्रुतियों ने कही है । इसलिये ब्रह्म परमानन्द रूप है, (निधि निलय वधूसाम्यू वादात्) जैसे पृथिवी में अर्थात् घर के श्रांगन में दबी हुई निधि के ऊपर प्रति दिन विचरते हुए पुरुष को श्रज्ञान प्रभाव से निधि का सुख प्राप्त नहीं होता है, इस निधि के समान ब्रह्मा को बतलाया है। अऔर जैसे आकाश में बाज आदिक पक्षी उड़ने से परिश्रांत होकर सायंकाल में अपने घोंसले में ही सुख के लिये प्राप्त होते हैं तैसे ही जीव भी सुखरूप ब्रह्म की प्राप्ति के अर्थ सुपुप्ति में प्राप्त होते हैं. इस प्रकार नीड के समान सुखरूप ब्रह्म को बतलाया है | और जैसे स्त्री के साथ मैथुनरुरूप संग से अभिन्न हुआ पुरुष बहिर् अंतर कुछ भी नहीं जानता तैसे ही सुषुप्ति में ब्रह्म से अभिन्न हुआ जीव बहिर अंतर कुछ भी नहीं जानता इस वधू के समान ब्रह्म को बतलाया है भाव यह है, कि इन ऋष्टांतों से ब्रह्म की सुख रूपता सिद्ध होती है । (सुषौ आनन्दे ब्रदाता उक्त: ) सुपुप्ति में होने वाले श्रानंद में ‘स एप ब्रह्मलोकः इस वाक्यसे ब्रह्म रूपता ही कही है । इससे भी ब्रह्म परमानंदरूप है । (अपिच रसतया) तथा श्रात्मारूप ब्रह्मको साक्षात् ही श्रुति नेन आनंदैक रसरूप कहा छै, अत: ब्रद्धा श्रानंद रूप है।॥३१॥

११ स्वा. सि