पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१६८

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स्वाराज्य सिद्धिः

सब का प्रत्यगात्मा है गढ़ा हुश्रा वन, घोंसला और स्री

प्रसंग में एकता के समान उसका कथन होने से तथा

सुषुप्ति के आनंद में ब्रह्मरूपता के कथन से ब्रह्म.एकरस सत्

श्रानद स्वरूप हें ॥३१॥

( तत्सदानन्दरूपम्) वह सत्तूरूप ब्रह्म सदा श्रानंद स्वरूप है । श्रब ब्रह्म की आनन्द रूपता में श्र ति संगृहीत कारणों को दिखलाया जाता है, ( सौख्योत्कर्षावधित्वात्) श्रानन्द की: अधिकता की अवसान भूमि ब्रह्मही है, क्योंकि तैत्तिरीयोपनिषत् की ब्रह्म वल्ली में सार्वभौमसे लेकर हिरण्यगर्भ पर्यन्त सब किसी का जो भी आनन्द है, सो ब्रह्मानन्द का एक अंश हैऐसा कहा है, इसलिये सुख की उत्कर्पता ब्रह्म में ही समाप्त है इससे ब्रह्म परमा नन्दरूप हैं । (निखिल सुखकणान्भोनिधित्वश्रतिभ्य:) सर्व ही सुखचकणों का समुद्र ब्रह्म है यह अथ ‘एतस्यैवानन्द स्यान्यानि भूतानिमात्रामुपजीवन्ति' इत्यादिक श्रुतियों से सुना है, अतः ब्रह्म परमानन्दरूप हैं (मुक्त प्राप्यत्ववादात् ) 'मुक्तोपस्पृष्यम् ब्रह्मविदा प्नोतिपरम् । अत्र ब्रह्म समश्नुते। मांप्राप्यतु । इत्यादिक सैकड़ों ही श्रुति तथा सर्बज्ञ बचनों से मुक्तपुरुष ब्रहा को प्राप्त होते हैं ऐसा कहा है। इस से भी ब्रह्म परमानन्दरूप है, क्योंकि निमन्द में मुमुक्षा ही नहीं होती ( निरवधिपरमानन्द भूमात्मकत्वात्) निरतिशय आनन्द अनंत रूप ब्रह्मा है क्योंकि यो वै भूमा तन्सुखं नाल्पेसुखमस्ति भूमैव सुखं भूमा त्वेव जिज्ञस्तिव्य:’ इस छांदोग्योपषित् की श्रुति ने एक ब्रह्म को ही निरतिशय सुखरूप कहा है और भूमा से भिन्नको सातिशय होने से. अल्पता बता. कर अल्प में सुख का निषेध किया है । अल्पसुख श्रागे श्रागे अधिक सुखं की तृप्रणा का हेतु होने से सुख नहीं है,