पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१६७

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प्रकरणं १ श्लो० 31

' यत्साक्षात् अपरीक्षात् ब्रह्म' इत्यादिक श्रतिश्रों ने ब्रह्म को परम प्रत्यक्षरूप कहा है, इससे भी ब्रह्म को चेतनरूपता स्पष्ट है। किंच (असुकृत सुकृताध्यक्ष साक्षित्ववादात्) ‘कर्माध्क्षः एव होवासाधुकर्मकारयति’ इत्यादिक श्रुतिश्रों ने ब्रह्म को पापपुण्य का प्ररकता और साक्षात् द्रष्टत्वता कही है। इस से भी ब्रह्म चेतन रूप है ऐसा स्पष्ट विद्त होता है ( सर्वज्ञ ज्ञादि शब्दात्) ‘ज्ञः कालकालो गुणी । यः सर्वज्ञः स सर्ववित्’ इत्यादिक श्रतिश्रों ने ब्रह्म में सर्वज्ञ और अर्थात् ज्ञाता आदिक शब्द कहे हैं, इससे ब्रह्म चेतन रूप सिद्ध होता है । ( स्फुट बचन शतैश्च ) ‘चिन्मात्रोऽहं सदा शिवः । चैतन्यमात्मनो रूपम्’ इत्यादि असंख्य साक्षात् चेतनत्व प्रतिपाद्क शब्दों से ब्रह्म चेतन स्वरूप है, यह निश्चय होता है।॥३०॥

अब श्रुतिश्रों के वाक्यों से ही ब्रह्म को आनंद रूप सिद्ध किया जाता है

सौख्योत्कर्षावधित्वान्निखिल सुख कणांभोनिधि

त्वश्र तिभ्यो मुक्त प्राप्यत्ववादान्निरवधि परमा

नन्द भूमात्मकत्वात् । सर्वप्रत्यक्त्ववादान्निधि

निलय वधूसाम्यवादात्सुषुप्तावानन्दे ब्रह्मतोक्त

रपि च रसतया तत्सदानन्रूपम् ।।३१॥

श्राद्रि की अधिकता की वह अंतिम भूमि है, उस को श्रुति सब सुख कणों का समुद्र कहती है, मुक्त उस को प्राप्त होते हैं, वह निरातशय आनंद स्वरूप भूमा है,