पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१६६

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स्वाराज्य सिद्धिः

तत् सृष्टातदेवानुप्राविशत् । य इमं मध्वदंवेद् आत्मानं । अंगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः । इत्यादिक सैकड़ों श्रतीयोंने ब्रह्म को आत्मा कथन किंया है । भाव यह है कि ब्रह्म आत्मस्वरूप है, अपने स्वरूपको ही आत्मा कहते हैं और अपनीचेतनरूपता प्राणिमात्र को अनुभूत है। मैं जड़ हूं वा चेतन हूं यह किसी प्राणी को भी संशय नहीं होता और न में जड़ हूँ ऐसा विपर्यय ही होता है, अन्यथा, द्रष्टा कौन होगा ? (ईक्षितृत्वात् ) तदैक्षत इत्यादि वेद वचनों ने ब्रह्म सृष्टि का ईक्षणकर्ता है ऐसा कहा है। इस लिये ब्रह्म चेतन स्वरूप है, क्योंकि जड़ में इच्छा संभव नहीं है ! (अखिल वशितया ) एतस्यवाक्षरस्य’ इत्यादि बहदारण्यकोपनिषत् के गार्गि ब्राह्मण वाक्य ब्रह्म ही सर्व को अपने आधीन रखता है यह बतलाते हैं । इस लिये ब्रह्म चेतन है, क्योंकि वशकरना चेतन का धर्म है । (शास्र योनित्ववादात् ) जिसमें शास्त्रं ही प्रमाण हो वह शास्रयोनि कहा जाता है। अर्थात् ‘तंत्वोपनिषदं पुरुषं पृच्छामि ’ इत्यादि शास्त्र ब्रह्म को एक उपनिषत्प्रमाणगम्य कहता है। प्रमाण अज्ञात अर्थका ही ज्ञापक होता है और अज्ञानता चेतन में ही होसक्ती है, जड़ में नहीं, क्यों कि जड़ में प्रयोजन का अभाव है । अतः ब्रह्म चेतन है | (कामाभिध्योपदेशात्) कहीं पर ब्रह्म में सृष्टि विषय के कामना होने का कहा है इससे भी ब्रह्म चेतनरूप है कन्याक काम संकल्प का कर्ता चेतन ही होता है जड़ नहीं ! (शशितपन मुख द्योति भारूपतोक्तेः) चंद्रमा सूर्यादि प्रधान हैं जिनमें ऐसी प्रधान अग्नि आदिक जिन ज्योतिश्रों में प्रकाशक स्वयं प्रकाशरूप ब्रह्म श्रतीयों में कहा है अर्थात् ' ज्योतिषामपेितज्ज्योति: ' इत्यादिक वेदवाक्यों में कहा है। इस से स्पष्टही ब्रह्म को वेतनरूपता है। ( साक्षादेवापरोक्षात्)