प्रकरण २ श्लो० ३० [१५७
के श्रनुभव से भी आत्मारूप ब्रह्म सत्य है ।॥२९॥
युक्तिशतगर्भित अनेक श्रुतिपदों से श्रात्मारुरूप ब्रह्म की
सत्यरूपता सिद्ध की । अब अनेक श्रुतिपद् संग्रह से ब्रह्म की
चिद्रूप्रता सिद्ध की जाती है
श्रात्मत्वादीक्षितृत्वादखिलवशितया शास्त्र योनि
त्ववादात्कामाभिध्योपदेशाच्छशि तपन मुख
योतेि भारूपतोक्तः । साक्षादेवा परोक्षादसुकुत
सुकृताध्यक्सात्त्वि वादात्सर्वज्ञ ज्ञादि शब्दा
त्स्फुट वचन शतेश्चापि सञ्चित्स्वभावम् ।॥३०॥
सबका छात्मा होने से ईक्षण के कथन से सब को
श्राधीन रखता है इस से, शास्त्र ही प्रमाण होने से,
सृष्टि कामना उस में होती है ऐसा श्रुति का कथन होने
से, चंद्र सूर्य ज्योतिश्रों का भी प्रकाशक होने से, साक्षात्
अपरोक्त होने से, अशुभ शुभ का अध्यक्ष श्रौर साक्षी होने
से उस के लिये सर्वज्ञ, आदि शब्दों का प्रयोग होने से
तथा ऐसे अन्य सैकड़ों बच्चनों से सत् ब्रह्म चैतन स्वरूप
है ।॥३०॥
(सचित् स्वभावम्) सतृरूप ब्रह्म चेतनस्वरूप है। अब
ब्रह्म की चैतन्यरूपता में हेतुओं को दिखलाते हैं।( आत्मत्वात्)
तत्कमसि । अहं ब्रह्मासि प्रज्ञानमानंदं ब्रह्म । श्रयमात्मा ब्रह्म ।