पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१७०

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
162 ]
स्वाराज्य सिद्धिः

पूर्वं तीन श्लोकों से ब्रह्मको सचिदानंद रूप कहा । अब उक्त ब्रह्माका जो सचिदानंद रूप लक्षण है उसको जीवात्मा में चार श्लोकों से दिखलाते हैं।

सचित् सोख्यैकरस्यं निगदितमिह यद् ब्रह्मणो

लच्ण तत्प्रत्यकतत्वेपि जैवे सममखिल दृशस्तस्य

वाधाद्ययोगात् । मुख्यप्रेमास्पदत्वादुपधिविभि

दया वस्तुभेदायसिद्ध ब्रह्मांशत्वप्रवादात्तनुकरण

जो सत् चित श्रानैद एक रस ब्रह्म के लक्षण कहैं, वे ब्रह्मही जीव का ग्रत्यक् स्वरूप होने से-क्योंकि ब्रह्मरूप से ही वह सबका द्रष्टा होने से उसका कभी भी बाध नहीं होता-वैसे ही वह मुख्यप्रेम का विषय होने से, उपाधिके भइ स श्रात्मा में भद की सिद्ध न होने से, ब्रह्म का अंश जीवमें भी वे समान रूप से ही पाये जाते हैं ॥३२॥

(इ. सन् चित् सौल्क रस्यं ब्रह्मणो लक्षण यत् निगदितं ) इप्त ग्रंथ में श्रुनिश्रों के प्रमाण से सन् वित् श्रानंदैक रसना सो लङ्गण जीव संबंधि सर्व श्रांतर सर्वसाक्षी अप्रत्यगात्मा में भी समाल ही है, अर्थात् ब्रह्मके समान आत्मा भी सचिदानंद रूप ही है । श्रब्र आत्मा में सत्यरूपता दिखलाते हैं (अखिल