पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१२२

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स्वाराज्य सिद्धिः

अब प्रकारान्तर से भेद का खंडन करते हैं

भेदोऽयं भिन्न धर्मि प्रतिभट विषय ज्ञानज

ज्ञानवेद्यो धम्यदेभेद सिद्धिः पुनरपि च तथे

त्यापतेचानवस्था । भेदे धम्यद्यभेदे वत भवति

मृषा भेद बुद्धिर्विभेदे प्रादुष्युः पूर्व दोषा न च

गतिरपरा तेन भेदो मृषेव ।॥६॥

इस भेद ज्ञान में पूरस्पर भिन्न भेद और भेद के श्राश्रय भूत ग्रतियोगी के ज्ञान को ही कारणता है वैसे धर्मादिक की भेद सिाद्धि भी ज्ञानाधीन ही है ३इस प्रकार यहां अनवस्था दोष प्राप्त होता है । भेदमें धर्मादि के अभेद मे भेद बुद्धि मिथ्या है, विमेद में पूर्वके दोष होंगे, इससे अन्य कोई गति नहीं है, इसी कारण भेद मिथ्या है ॥६॥

(अयं भेदः) सामान्य रूप से ये सभी भेद (भिन्न धर्मि प्रतिभट विषय ज्ञानुजज्ञान वेद्यः) परस्पर स्वाश्रय प्रतियोगि विषयक जो ज्ञान है उस ज्ञानजन्य ज्ञान से जाने जाते हैं। भाव यह है कि भेद ज्ञान से परस्पर भिन्न भेद के और भेद के श्राश्रयभूत प्रतियोगि का ज्ञान ही कारण है । पट प्रतियोगिक श्रटनिष्ठ भेदका ज्ञान प्रतियोगी और अनुयोगी रूप घटपटके ज्ञान के विना नहीं होता । ऐसे ही, (धर्मादेर्भद सिद्धिरपि च पुन स्तथा) कारणीभूत ज्ञान के विषय धर्मि प्रतियोगी के परस्पर भेद का ज्ञान भी तो वैसे ही धर्म, अनुयोगी और प्रतियोगी के