ज्ञान अधीन ही है। ऐसे ही आगे चलने से (अनवस्था च चक श्रापतेत्) अनवस्था दोष प्राकर प्राप्त होगा, क्योंकि कारणीभूत ज्ञान धारा की विश्रांति का वहां अभाव है और यदि इस अनवस्था दोष के भय से (भेदे) भेद पदार्थ में (धम्र्यादि अभेदे ) धर्म से, प्रतियोगी से और भेदांतर से अभेद् मानोगे तो (वत) बड़ा खेद है कि (भेद् बुद्धिमृषा) फिर भेद् बुद्धि ही मिथ्या होगी । भाव यह है कि सब से अभिन्न होने से भेद का उच्छेद ही प्राप्त होगा और यदि भेद के उच्छेद के भय से भेद पदार्थ में (विभेदे ) धर्मी आदि प्रतियोगिक भेद मानोगे तो (पूर्व दोषाः प्रादुष्यु: ) पूर्व दिये हुए आत्माश्रयादिक सर्व दोष प्रकट होकर इस पक्षको दृषित करेंगे । यदि भावयह है कि अनुयोगी और प्रतियोगी से भेद भिन्न है तो पूछना चाहिये कि अनुयोगी और प्रतियोगी से भेद को भिन्न इसी भेद ने किया वा अन्य भेद ने किया है ? श्रादि पक्ष में प्रात्माश्रय स्पष्ट प्रतीत होता है और दूसरा पक्ष भी संभव नहीं, क्योंकि यह दूसरा भी भेद ही है इसलिये वह धर्मी आदिकों से अभिन्न मानोगे तो भेद का उच्छेद वा व्याघात दोष प्राप्त होगा । इसलिये अपने भिन्न धर्म के प्रतियोगी में दूसरा भेद भी वर्तता है तो इस दूसरे भेद को भी धर्मी के प्रतियोगी के भिन्न करने में प्रथम भेद की अपेक्षा यदि होगी तो अन्योऽन्याश्रय दोष प्राप्त होगा । ऐसे ही, आगे बढ़ने पर चक्रि का, अनवस्था, विनिगमना विरह प्राग् लोप, अनुभवका विरोध श्रादिक दोष ज्योंके त्यों बने रहेंगे । ( अपरागतिश्च न ) अब और कोई तीसरी गति नहीं है अर्थात् भेद् उदासीन में रहता है। इस प्रकार की कोई तीसरी कोटि नहीं है, क्योंकि उक्त दो कोटि से भिन्न तीसरी कोटि ही
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