पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१२१

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प्रकरणं 2श्लो० 2

भिदा ) सो भेदाश्रयनिष्ट भेद् ( तेन चेत् ) यदि उसी निरूप्यमाए भेद से भिन्न है, अर्थात् यदि अपने को श्रपने आश्रय से भिन्न किया है, ऐसा कहो तो ( आत्मनिष्ठां ) आत्माश्रय दोष प्राप्त होगा और (नो चेत्) स्वयं ही अपने को अपने आश्रय से भिन्न नहीं किया, किंतु किसी अन्य भेद् ने भिन्न किया है इस प्रकार यदि कहोगे तो उस भेदांन्तर को भी वह भेदरूप होने से भिन्नाश्रयकत्व नियम अवश्य मानना पड़ेगा । फिर उस दूसरे भेद को भी स्वाश्रय से भिन्न किस भेदने किया ? यह प्रश्न ज्योंका त्यों बना रहता है। यहां यदि कहो। कि स्वयं ही अपने को स्वाश्रय से भिन्न किया, तो आत्माश्रय द्वेष ज्यों का त्यों बना रहा । यदि अन्य भेद ने किया ऐसा कही तो वह अन्य भेद पहला ही है वा तीसरा है वा चौथा है ? यदि पहिला ही है अर्थात् भेदांतररोश्रय निष्ट भेद को ही निरूप्यः माण भेद हेतुकता है तो (अन्योन्यनिष्ठा) अन्योऽन्याश्रय दोष प्राप्त होगा अर्थात् स्वाश्रय भेद के लिये निरूप्यमाण भेद भेदांतर की श्रपेक्षा रखता है और भेदांतर स्वाश्रय भेद के लिये निरूप्यमाण भेदकी अपेक्षा रखता है इस प्रकार अन्योऽन्याश्रय दोष प्राप्त होगा । यदि भेदान्तराश्रय के भेद का हेतु तीसरा भेद है तो चक्र का दोष प्राप्त होगा । तीसरे भेदाश्रयस्थ भेदके लियेचौथा भेद अंगीकार करोगे तो (स्थिति हतिः) अनवस्था दोष प्राप्त होगा, क्योंकि आगे आगे पंचम मद आदिकों की अपेक्षा का श्रत नहीं श्रावेगा, जहां जाकर ठहरोगे वहां विनिगमना विरह श्रऔर प्राग् लोप दोष और प्राप्त होंगे (तत्) इसलिये अर्थात् श्रांश्रय के निरूपण न होने से (भिद्दा दुर्निरूपा ) भेदका निरु पण करना अशक्य है ॥५॥ • •