पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१२०

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स्वाराज्य सिद्धिः

(च) तथा (यत्) जो कनक आदिक वस्तु ( स्वत:) स्वत: ही (अभिन्नम्) हैम कटकादिकों से अभिन्न है, (तत् परतः) सो कनक आदिक वस्तु कटकत्व, कुन्डलत्व आदिकों से (भेद् भाङ् न भवति )भेद् वाला नहीं होता अर्थात् उनसे उसके भेद की सिद्धि नहीं होती । वैसे ही (अन्य भेदात्) धर्मनिष्ट भेद से (अन्य:) धर्मी अर्थात् कटक कुडलादि धर्मनिष्ठ भेद से कनक आदि धर्मी (न भिद्यत) स्वनिष्ठ अन्य भेदों के अनुत्पन्न हुए भी अपने उन धर्मो के भेद से भेद् वाला नहीं होता । क्योंकि अन्यके भेद से यदि अन्यको भेदवत्ता होजाय तो अभेद् का उच्छेद ही हो जायगा । इतना ही नहीं, (धर्माः विविधा कथम्) कटक कुडल आदिक धर्मो में ही परस्पर भेद कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता, क्योकि (धम्यभेदात्) कनकादिक धर्मो से कटकादिकों का अभेद् ही है। इसलिये (अभिन्नाः) कटकत्व, कुडलत्व आदिक धर्म भी परस्पर अभिन्न ही हैं। अर्थात् कटकाभिन्न, कनकाभिन्न कुडल को कटक से अभिन्नता ही है। एक दूसरे से अभिन्न है और दूसरा तीसरे से अभिन्न है तो तीसरा पहिले से अभिन्न ही होता है, यह नियम है। (भेद:) अब सर्व घट पटादि भेद् स्वश्राश्रयसे अभिन्न है अथवा भिन्न है? यदि यह भेदश्राश्रयसे अभिन्न कहोगे तो व्याघात दोषप्राप्त होगा । क्योंकि विरुद्ध धर्मो का एक अधिकरण में समावेश होजाना ही व्याघात होता है, जैसे भेदके आश्रय घटपटआदिकों में भेद तथा अभेददोनों विरुद्ध धर्मो का समावेश का कथन करना, प्रकरण के बाहर तो मेरे मुखमें जिह्वा नहीं है, मेरी माता वंध्या है. इत्यादिक व्याघात के उदाहरण प्रसिद्ध है। और (भिन्नाश्रयश्चेत्) यदि स्वश्राश्रय से भेद् भिन्न है, यह दूसरा पक्ष कहोगे तो प्रश्न होता है कि भेद को स्वाश्रय से भिन्न किसने किया ? ( अधिकरण