धर्मो से भेद होता परन्तु वैसा है नहीं, क्योंकि, कनक और कटक कुडल आदिकों का श्रभेद् प्रसिद्ध है। किंच (धर्मधर्मि व्यवस्था लोके) ोक में धम धमी व्यवस्था भी (न खलु भेदे नवाभिदे परिचिता) न तो निश्चय रूप से भेद में ही अर्थात् अत्यंत भिन्न गौ अश्व आदिकों में ही निश्चय की गई है और न अभेद् में ही अर्थात् न परमार्थ एक चन्द्र में ही देखी गई है। क्योंकि अत्यन्त भिन्न गौ अश्व आदिकों में परस्पर धर्म धर्मि व्यवहार किसी ने भी नहीं देखा है और न एक चंद्रमा में ही देखा है इसलिये धर्म धर्मि व्यवहार भी मिथ्या ही है।॥४॥
अब धर्म हेतुकभेदकी प्रसिद्धिको प्रकारांतरसे दिखलातेहैं
यश्चाभिन्न स्वतस्तन्नभवति परतो भेद भाड
नान्य भेदादन्यो भिद्येत धमः कथ मथ विविधा
धम्र्यभेदादभिन्नाः । भेदो भिन्नाश्रयश्चेदधि
करण भिदा तेन चेदात्मनिष्ठा नोचेदन्योऽन्य
निष्टा स्थिति हृतिरथवा तद्भिदा दुर्निरूपा ॥५॥
जो स्वतः ही अभिन्न है वह दूसरे से भेद वाला नहीं होता वैसे ही, अन्य भेद से भेद को प्राप्त नहीं होता । भिन्न धर्म कैसे है ? धर्मी की प्रभेदता से धर्म आभिन्न ही है, भिन्न आश्रय वाला भेद हो तो भेद के अधिकरण नाना मानने पड़ेगे और आत्माश्रय अन्योन्याश्रय और अनवस्था दोष श्रावेंगे, इसलिये भेद निरूपण करना शक्य नहीं है।॥५॥