भिदा धर्मिणो हन्त तेषां भेदेऽभेदेऽपि लोके न
खलु परिचिता धर्म धर्मिव्यवस्था ॥४॥
भेद राहित वस्तु में भेद की प्राप्ति मिथ्या हा ह जस अनेक चंद्र । तैसे ही मिन्नता में प्रतीत हुई एकता भी मिथ्या है । स्वतः वस्तु में भेदाभेद नहीं होता । कहो कि धर्म के भेद से भेद प्रसिद्ध ही है तो वैसा नहीं है, क्योंकि कटक का कनक से भेद नहीं है । लोक में धर्म धमीं की व्यवस्था भी अनिश्चित होने से मिथ्या है ॥४॥
(अभिन्ने) भेद रहित वस्तु में (प्रतीतो भेदः) प्रतीत हुआ भेद् (खलु ) निश्चय ही (मृषा भवति ) मिथ्या है, (चंद्र नानात्मतावत्) जैसे भेद रहित चंद्रमा की अनेक रूपता मिथ्या है वैसे ही (भिन्ने) पृथक २ स्थित वस्तु में प्रतीत हुश्रा (अभेदश्च) अभेद् भी ( तद्वत्) मिथ्या ही है। दूर स्थित भिन्न २ वृक्षों में भी इसी प्रकार की मिथ्या एकता भासती है। यह प्रसिद्ध ही है इसलिये भेद और अभेद् को मिथ्यात्व होने से (स्वतः) अपेक्षा के विना वस्तु स्वरूपका भेदाभेदादिभेद् (न प्रभवति) नहीं होता, किंतु किंचित् अपेक्षा से ही होता है ।
शंका-एकरूप कनक (सोना ) आदिकों में कटकत्व आदिक धर्मो से भेद सर्व लोक में प्रसिद्ध है ।
समाधान-( धर्मः ) कटकत्व कुडलत्वादिक धर्मो से तो (भेदः प्रसिध्येत्) भेद् सिद्ध हो (यदि तेषां हन्त धर्मिणः दिां भवति) यदि उंनं कटकत्व अंद् िधर्मो का कनक प्रांदि