पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१०२

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स्वाराज्य सिद्धिः

श्रन्योन्याधास से मिश्रित सत्य मिथ्या के कल्पित अध्यास

से अनेक प्रकारके सांसारिक अनथों को प्राप्त होता हें ॥५०॥

(तनौ) शरीर में (श्रहं शुद्ध:) मैं निर्दोष हूँ ( दृष्ट:) में प्रसन्न हूँ अर्थात् सुखी हूं ( स्थिरः) में अचल हूँ (बुधः) चेतन हूं ( इति ) इस प्रकार (श्रात्मधर्मान् ) शुद्धत्वादि उक्त श्रात्म धर्मो का (मिमीते ) अध्यास करता है। वैसे ही (निजे ) निज स्वरूप में अर्थात् स्वात्मा में (अहं युवा स्थूलः गौर अभिरूपः पटुः) में नवयुवक हूं. मैं बड़ा मोटा हूं, मैं गौर रंग वाला हूं, मैं बड़ा सुन्दर रूप वाला हूँ तथा में बड़ा शीघ्रकारी चतुर हूँ, (इति) इस प्रकार (देहधर्मान्) नवयुवकत्वादिक देह के धम का श्रध्यास करता है। इस प्रकार परस्पर तादात्म्य रूप से (अन्योऽन्याध्यस्तसत्यानृत वलित वपुः) परस्पर कल्पित सत्यानृतों से मिश्रित स्वरूप हुआ यह जीव (विविध भवानर्थ जातं प्रयत्न:) नाना प्रकार के संसार के अनर्थ समुदाय को प्राप्त हुआ है (लोह पिंड प्रविष्ट: वह्निः कूटाभिघातान् इव) जैसे लोह के पिंड में तादात्म्य को प्राप्त हुआ अग् िकूट में अर्थात् लोहपिंड में ही अन्य लोह से अर्थात् लोह के धन से ताड़नाओं को प्राप्त होता है । भाव यह है, जैसे अग्नि अविवेक से ताड़ित हुश्रा सा प्रतीत होता है तैसे ही देह में जीव भी अविवेकः से अनर्थ को प्राप्त हुए के सदृश प्रतीत होता है, परमार्थ. से नहीं ॥५०।।

श्रारोप्य के सध्श रूपवान् श्रधिष्ठान ही में अध्यास देखाः जाता है इसलिये आत्मा में अध्यास असंभव है ऐसी शंका को लकर कहते हैं