पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१०३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
[ 95
प्रकरणं १ श्लो० 51

दृष्टः प्रत्यक पराचीविषययिविषययोभस्तमो

वद्विरोधेऽप्य ध्यासोऽहं ममेतिस्फुटमिति सुधियां

नास्त्यसंभावनात्र । स्वप्नादो गत्यभावात्

गगन मलेिनिमाध्यास दृष्टेबुधानां पश्वादीनां

च सान्याद् व्यवहृतिरखिलाध्यास मूलेति

सिद्धम् ।।५१॥

प्रकाश अंधकार के समान विषय, विषयी तथा श्रपर्ने परे का विरोध है तो भी मैं और मेरे का अथ्यास स्पष्ट देखा जाता है। इसमें विद्वानों को संशय नहीं है। स्वप्नादि श्रौर श्राकाशमे मलिनताका अध्यास देखनेसे तथा प्रकृति आदि व्यवहार में बुद्धिवान् और पशुओं की समानता ही है, इस लिये सब व्यवहार अध्यास युक्त हा है यह सिद्ध होता है ॥५१

शंका-पूर्व श्लोक में जो अध्यास दिखलाया वह अध्यास नहीं बन सकता, क्योंकि अध्यास की सामग्री का ही अभाव है। प्रमाता गत दोप, प्रमाण गत दोप, प्रमेयगत दोप, सत्य वस्तु कें ज्ञान जन्य संस्कार, अधिष्ठान का सामान्य ज्ञान और विशेप रूपसे अज्ञान, इतनी अध्यास की सामग्री है। इनमें एकभी न ही तो अध्यास नहीं होता, यह बाह्य, रज्जु, सर्प, शुक्तिरजत आदिक श्रध्यासों में देखा है। प्रात्मा का और दृश्य प्रपंच का तम प्रकाश की तरह विरोध है। स्वल्प भी सादृश नहीं है, प्रपंच तुम्हारे