पृष्ठम्:सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः अन्ये च.djvu/१४८

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मन निरास प्रेम रस भोगी । भणत भरथरी ते नर जोगी ।
पंच षडा अधिक वयवंता । मनराइमैं मत गाज । ११ ॥
करडी लहर कद्रप की निकफे । तब कुंड जू अॅड भाजै ।
वैरागी जोगी राग न करणां । मन मनसा करिवंडी ।। १२॥
आगम अगोचर सिद्ध का आसण । आसातृष्णा पेंडी ।
आसा पंडी मनसा डी । मन पवनां होई उजीरं ॥ १३ ॥
सति सति भाषेत राजा भरथरी । तब मन होइबा थीरं ।
राज गयां ॐ राज्य झारै । वैद गयाॐ रोगी ॥ १४॥
रूप गये छै कामी झरै । विन्द गया हूँ जोगी ।
बीज नहीं अंकुर नहीं । रूप नहीं रेष अहंकार ॥ १५ ॥
उदय अस्त वतहां कथ्या न जाई । तहाँ भरथरी रहा समाई ।
मरनें का संसा नहीं। नही जीवन की आस ॥ १६ ॥
सति सति भाषेत राजा भरथरी। हमारे सहजै लीलविलास ।। १७॥
निरघत कथा बहौ विस्तार । कथौ निरंजन रहौ अकार ।
पूर्छत विक्रम बांवन बीरं । फ़ेण प्रचै रहिबा थीरं ।। १८ ॥
सुन हो विक्रम ब्रह्म गयन । देही बिबरजित धरौ धियन ।
उदै अस्त जहा कथ्या न जाई । तहाँ भुथरी रह्या समाई ॥ १९॥
आगें बहनीं पीछे भांनु । निरति सुरति वृछ तलि यांन ।
कथं निरञ्जन रहै उदास । अजहुँ न छांडे आसा वास ॥ २० ॥
माया सत्रनि करसि ग्रब । नहीं धेन जोबन राजा द्रव ।
कनक कॉमनी भोग विलास । कहै भरथरी कॅध विनास ॥ २१ ॥
साधिबा तो ऐक पवन आरंभ साधिबा --
छाडिया तौ सकल विकारं ।