पृष्ठम्:सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः अन्ये च.djvu/१४७

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अथ भरथरी जी का सबदी

अहंकारे प्रथमी पीणी । पहौ पेषीणां भूरा।।
सति सति भाषंतरा जोगी भरथरी । पिंडकावैरी “रा ॥ १॥
दुषीया रोबत सुपीया हसंत । केला करंत कामणी ।
मुरा जुईत हुँदू भजत । सति सति भाषेत राजा भरथरी ।। २ ।।
दुषी राजा दुषी प्रजा । दुपी बांभण बांणीया।
सुपी राजा भरथरी । ज्यन गुरुका सबद पिछांडिया ॥ ३ ॥
क्या गरबाती गूजरी । देषिर पाडरिया।
सोला सै मै मंतीया । मुझ गरहीड तीयां।।४ ॥
बने बृच्छा सुफल फलंते । मुडिघइटंते गईंद ।
ते बृच्छा सजडा गया । मो देवतां नरिंद । ५॥
चढंगा स पड़ेगा । न पड़ेगा तत विचारी ।
धनवंत लोग छीजैगा । तेराया छीजै भरथरी भिष्यारी ॥ ६ ॥
राजा भर्थरी भरमिनला । तलिकरि डिळी ऊपरकरचूल्हा ।
है है लगडी जुगुति सुंजारि । राजा भर्थी जीवें जुगचारि ॥७॥
अवध् जलविन कवल कवल बिन मधुकर कोईल बोलै
कण्ठ विनां । थल बिन मृग मृग बिन पारधी, ऐक सर
वेधं पांच जनां ॥८॥
नवद्वारे जडिलै कपाट । दसवै द्वारे सिव धरिबाट ।
दोई लष चन्दा एक लषि भान । वेध्या मृगगगन अस्थान ॥९॥
वेध्या मृग न छाडे पास । भणंत भरथरी गोष का दास ।
तनि निरास मन मांडे माया । मुंड मुंडाईम भंडसिकाया ॥ १० ॥