गृह गृह (पु० ) बिना घर वाला। ( नट, जनजारा ) यती । + गोचर (वि०) इन्द्रियों के प्रत्यक्ष का अविषय । जिसका अनुभव इन्द्रियों को न हो। अप्रत्यक्ष अप्रकट । (5) गोचरम् (२०) | नायी ( स० ) १ अग्निदेव की स्त्री स्वाहा। २ त्रेतायुग। " तेज "
- पिस "
- रन्ति (पु०) आग | हवन की याग। यह तीन प्रकार की मानी गई है। यथाः-गार्हपत्य, शाहवनीय और दक्षिण| उदर के भीतर जो शक्ति खाद्य पदार्थों को पचाती है, उसको भी अग्नि कहते हैं और उसका नामविशेष है "जठराग्मि" था “वैधानर" ३ पाँच तत्वों में से एक, जिसे कहते हैं। ४ कफ, बात, पित्त में को अग्नि माना है। १ सुवर्ण । ६ तीन की संख्या ७ वैदिक तीन प्रधान देवताओं में (श्रग्नि, वायु और सूर्य) एक अनि भी है। म चित्रक। चीता। (औषध विशेष ) | ३ भिलावा । [१०] नीबू । (था) गारं- ( था ) गारा --आालयः, (पु०) गृह ( न० ) अग्नि देव का मन्दिर । -अस्त्रं ( = अभ्यास्त्र ) ( न० ) वह अस्त्र विशेष जो मंत्र द्वारा चलाये जाने पर आग की वर्षा करता है।-याणः (पु०) यह भी "अग्न्यास" ही का अर्थ वाची शब्द है- धनं (अभ्याधान ) ( न० ) १ अग्नि की यथाविधि स्थापना | २ अग्निहोत्र-आहितः, -(अभ्याहितः ) ( पु० ) जो अपने घर में सदा विधान पूर्वक अग्नि को रखता है।-उत्पातः ( पु० ) अग्नि सम्बन्धी उपद्रव विशेष अथवा अग्नि द्वारा सूचित अशुभ चिन्ह विशेष उल्का- पांत आदि उपस्थानं ( न० ) १ थग्नि का पूजन या चाराधन २ वे मंत्र विशेष जिनसे अग्नि का पूजन किया जाता है। कणः स्तोकः ( पु० ) अँगारी। शोना। बैंगारा ।-कार्य- कर्मन् ( न० ) अग्नि का पूजन काष्टं (न०) अगर का वृक्ष । – कुकुटः (पु० ) जलता हुआ पगाल का पूला लूक लुकारी। -कुराडं (न०) ( अग्नि एक विशेष प्रकार का गढ़ा जिसमें अग्नि प्रज्वलित करके हवन किया जाता है। यह कुण्ड धातु के भी बनाये जाते हैं। कुमार तनयः सुतः (पु०) १ कार्तिकेय पदानन | २ आयुर्वेद के मता- नुसार एक रस विशेष । कुलं (न०) क्षत्रियों का एक वंश विशेष /-केतुः ( पु० ) १ धूम | पुथा । २ शिव का नाम । ३ रावण की सेना का } । चयः एक राक्षस)Srkris (सम्भाषणम्)कोणणः (५०) दिळू पूर्व और दक्षिण का कोना जिसके देवता अग्नि हैं।-क्रिया (सी०) १ शव का अग्निदाह । मुर्दा जलाना | २ दागना । -क्रीड़ा ( श्री० ) १ आतिशवाजी | २ रोशनी दीपमालिका |--गर्भ (वि०) जिसके भीतर आग हो।-गर्भः (पु०) सूर्यकान्तमणि। सूर्यमुखी शीशा । गर्भ (स्त्री० ) १ शमीवृक्ष । २ पृथिवी का नाम । चित् (पु० ) अग्निहोत्री । ( पु० ) वयनं (न० ) -चित्या (सी०) देखो अग्न्याधान। -ज (वि०) अग्नि से उत्पन्न 1-अः -ज्ञातः (५०) १ कार्तिकेय । षडानन । २ विष्णु । -जं जातं (न०) सुवर्ण/जिह्वा (सी०) आग की लौ। (न०) अग्नि की सात जिह्वा मानी गयी हैं। उन सातों के भिन्न भिन्न नाम है । ( यथा कराली, धूमिनी, श्वेता, लोहिता, नील- लोहिता, सुवर्ण पारागा। ) तपसू (वि० ) उत्पन होता हुआ चमकता हुआ या जलता हुआ।--त्र्यं (न०) चेता (सी०) तीन प्रकार की भाग जिनका वर्णन अग्नि के अर्थ के अन्तर्गत किया जा चुका है। द (वि० ) ताकत बढ़ाने वाला। जठराझि को प्रदीप्त करने वाला।- दातृ ( पु० ) अन्तिम संस्कार अर्थात् दाइकर्म करने वाला (दीपन (वि०) जठराग्नि प्रदीप्तकारी । - दीतिः- वृद्धि : (स्त्री) बढ़ी हुई पाचन शक्ति | - भू-देवा (सी०) कृत्तिका नसत्र :- धानं (न०) वह स्थान या पात्र जिसमें पवित्र भाग रखी जाय। अग्निहोत्री का गृह वारं ( न०) अभि को घर में सदा रखना। -परि किया,-परिष्किया (सी०) अभि का पूजन। -- परिच्छेदः (पु०) हवन के ध्रुवा आज्यस्थती आदि पात्र । - परीक्षा (स्त्री०) जलती हुई आग द्वारा