पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/४५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

( छत्तीस ) पूo करने वाले) की वही दशा होती है जैसे कोई अन्धा व्यक्ति हाथ से टटोलकर किसी ऊबड़ खाबड़ मार्ग पर दौड़ रहा । हो ऐसे व्यक्ति का गिर जाना दुर्लभ नहीं होता । आशय यह है कि तर्क के आधार पर निर्णय की हुई बात पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता। इस प्रकार अनेक कलाकारों का समय निर्धारण सन्दिग्ध ही रह जाता है। अनेक विषयों में तो पाश्चात्य विद्वानों में भी मतभेद बना रहता है। सामान्य रूप से निर्णायक तत्व हैं विदेशी यात्रियों के उल्लेखकिसी कवि, कलाकार शास्त्रकार या किसी अन्य लेखक द्वारा उल्लेख, गणित सम्बन्धी ऐसी वास्तविकता जो किसी निश्चित कालावधि से भिन्न नहीं हो सकती थी, किन्हीं उपलब्ध सिक्कोंताम्रपत्रों स्तम्भ लेखों द्वारा निर्णय एवं अन्य साधनों से निर्णय। भारतीय पुरातत्व का निर्णय करने वालों ने निर्णय करने की चेष्टा की है कतिपय तत्व प्रकाश में आये भी हैं फिर भी उन पर पूर्ण विश्वास करना सर्वथा असन्दिग्ध नहीं हो सकता। पूर्ण रूप से निश्चित तिथि ईसा से ३२६ वर्ष पूर्व भारत पर सिकन्दर का आक्रमण था। उस समय से ग्रीक लोगों के साथ भारत का सम्पर्क हुया। उस समय से विभिन्न ग्रीक लोग भारत में रहने लगे। मगध राज्य में राजदूत के रूप में मेगस्थनीज ई.. ३० के आस पास पटना में रहता रहा था। यह सम्भवतः चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल था। अनेक शताब्दियों बाद चीनी यात्रियों का भरत दर्शन प्रारम्भ हुआ जिनमें फाह्यान (३९९ ई) हुयेन सांग (६३० से ६४५ ई) और इसिग (६७१ से ६९५ ई) के यात्रा विवरण प्राप्त होते हैं। इनसे भारतीय इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है। किन्तु भारतीय कवियों और नाटककारों के विषय में इन यात्रियों में हुयेन सांग को छोड़कर अन्य यात्रियों ने बहुत कम लिखा है। इन विवरणों से भारतीय साहित्य पर कुछ प्रकाश पड़ता है। इसके कतिपय शताब्दियों बाद ११वीं शताब्दी के मध्य में अल्वरूनी ने ‘हिन्दुस्ताननामक पुस्तक में भारतीय समाज और संस्कृति का परिचय दिया है। कवियों और कलाकारों के उल्लेख से इतना तो सिद्ध हो जाता है कि जिसका उल्लेख किया गया है वह उस लेखक से पहले हो चुका था जिसने उसका उल्लेख किया है, किन्तु यह ज्ञात नहीं होता कि वह कितना पहले हुआ था। एक कठिनाई यह भी है कि अनेक लेखकों ने अपनी अच्छी कृतियों को भी पूर्ववर्ती किसी लेखक के नाम पर और प्रायः उनकी कृति में सन्निविष्ट कर इस आशा से प्रचारित करने की चेष्टा की कि इससे उसकी कृति का सम्मान अधिक होगा। इस प्रवृत्ति के सबसे बड़े प्रमाण हैं- ८००० श्लोकों का जय नाम इतिहास कालान्तर में एक लाख से अधिक श्लोकों का महाभारत बन गया। सैकड़ों वर्षों के अन्तराल में होने वाले कवियों को भोज प्रबन्ध में एक साथ होने वाला बतला दिया गया। वेदव्यास को वैदिक साहित्य के संकलन, महाभारत और समस्त १८ महापुराणों और उपपुराणों की रचना का श्रेय दे दिया गया। महानाटक के रचनाकार ने अपने नाम का मोह छोड़कर उसे हनुमन्नाटक के रूप में हनुमान की कृति के रूप में प्रसिद्ध हो जाने दिया यद्यपि