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पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/४४

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( पैतीस ) संस्कृत लेखकों की तिथियां अत्यधिक संख्यक विषयों में सन्निकटता के मोटे अनुमान पर आधारित हैं। पारस्परिक निर्भरता के अप्रत्यक्ष प्रमाण, उद्धरण या सन्दर्भ, संकेत भाषा के विकास या शैली के द्वारा इन तिथियों का अनुमान लगाया जाता है। संस्कृत साहित्य के कलाकारों का निश्चित प्रमाण न मिलने का एक बहुत बड़ा कारण है ईपू. का साहित्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर भरत ने नाट्यशास्त्र की रचना की थी। जिन साहित्यों में साहित्य भाषा थोड़े थोड़े समय में बदलती रहती है और ऐतिहासिक शासकों में परिवर्तन होता रहताहै तथा सामयिक परिस्थितियों और प्रवृत्तियों में नई नई धारायें प्रवर्तित होती रहती हैं उनमें यदि ऐतिहासिक उल्लेख न हो तो भी स्वयं साहित्य से उसकी रचना का परिज्ञान हो जाता है। ठदाहरण के लिये हिन्दी साहित्य को लीजिये। इस सहस्राब्दी के प्रारम्भ में राजपूतकाल में जो अपभंश मिश्रित राजस्थली डोगरी चल रही थी मुस्लिम साम्राज्य के स्थापित हो जाने पर असहाय हिन्दू जाति ने भक्ति का मार्ग पकड़ा और भक्ति के लिये आराध्य देव राम कृष्ण की उपासना के लिये अवधी और ब्रजभाषाएँ अपनाई गई। फिर जब हिन्दू जाति मुस्लिम साम्राज्य के लिये आदी हो गई और साहित्य सिद्धान्तों (रीतियों) की चर्चा चल दी तब शृङ्गार रस का प्राधान्य हो गया और शृङ्गार रस के अधिदेवता भगवान् कृष्ण ही साहित्य क्षेत्र में प्रतिष्ठित रहे तब भाषा तो व्रज ही रही किन्तु कृष्ण का शृङ्गार प्रमुख हो गया। फिर अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ जब मुस्लमानों द्वारा अपनाई गयी ऊर्दू के नाम पर खड़ी बोली का प्रभुत्व बढ़ा तब ब्रजभाषा भी छूट गई और खड़ी बोली में कविता होने लगी। इस शताब्दी की कविता पर भी यदि ध्यान दिया जाय तो काव्य की विषयप्रवृत्ति दशाब्दियों में बदलती रही। इस प्रकार ऐसे साहित्य में यदि ऐतिहासिक देशकाल सुरक्षित न रह सका हो तो भी भाषा और विषय के आधार पर कविता स्वयं अपना देशकाल व्यक्त कर देगी। किन्तु ऐसी सुविधा संस्कृत में नहीं है। संस्कृत भाषा तो अपरिवर्तन शील है ही जो प्राकृत भाषायें नाटकों में प्रयुक्त होती हैं उनका भी देशकाल सर्वजन संवेद्य नहीं है। शास्त्रकारों ने उन भाषाओं को भी लगभग परिनिष्ठित बना दिया है। विषय भी सामान्यतः जाने माने ही हैं और शैली भी परम्परागत रूप में ही अपनाई जाती रही है। अतः किसी कृति को देखकर उसके देशकाल का निर्णय करना सरल नहीं है। परिणाम यह हुआ है कि यदि १२वीं शताब्दी की कृति को कोई ६ठी शताब्दी की बतला दे और उसके लिये कुछ तर्क भी प्रस्तुत कर दे तो कोई पाठक आसानी से उस पर अविश्वास नहीं कर सकेगा। किसी साहित्यिक कृति के काल निर्धारण के लिये तर्क का सहारा लेना पड़ता है जिस पर स्वयं विश्वास नहीं होता हस्तस्पर्शादिवान्धेन विषमे पथि धावतः। अनुमानप्रमाणेन विनिपातो न दुर्लभः ॥ [अनुमान को प्रमाण मानकर चलने वाले (तर्क के आधार पर वस्तुतत्व का निर्णय