पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/४३

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(चौंतीस ) मध्य युग अथवा दरवारी कविताकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर १९वीं शताब्दी के अन्त पर्यन्त लगभग २००० वर्षका सुदीर्घ काल भारतीय साहित्य साधना के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र का और विशेषकर ललित साहित्य का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण काल है। नाट्यसाहित्य के क्षेत्र में भी इस काल में इतनी बहुमूल्य कृतियां प्रस्तुत की गई जिन्हें विश्व साहित्य में केवल स्थान ही नहीं मिला अपितु उन्हें विश्व की मूर्धन्य कृतियों में गिना गया और पाश्चात्य जगत् ठनके कला सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। इस काल की अधिकांश रचनायें विभिन्न राजघरानों के संरक्षण में हुई। कलाकार अधिकतर किसी राजघराने के आश्रय में रहकर रचनाएँ प्रस्तुत करते थे और उन पर पुरस्कार प्राप्त करते थे। अनेक राजा लोग स्वयं कलाकार थे और उनकी कृतियों ने पर्याप्त प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। इन कृतियों की संख्या सहस्त्रों में है जिनका केवल एक अंश अबतक प्रकाश में आया है। हजारों की संख्या में इस प्रकार की कृतियां रजघरानों के व्यक्तिगत पुस्तकालयों में सुरक्षित पड़ी हैं। इस विषय में पाश्चात्य विद्वान धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने मनोयोगपूर्वक इन ग्रन्थों को खोज निकाला है तथा इसके लिये खोज की दिशा उन्मीलित की है जिससे प्रोत्साहित होकर भारतीय विचारकों ने इस दिशा में स्तुत्य कार्य किया है। इस साहित्य और इस पर राजघरानों के योगदान के विषय में सरसरी तौर से प्रकाश डालने के पहले दो प्रश्नों पर विचार कर लेना अत्यन्त आवश्यक है एक तो रचनाओं की अनिश्चित स्थिति दूसरे ग्रीक साहित्य का भारतीय नाट्यकला से सम्बन्ध जिस समस्या से भारतीय नाट्य साहित्य पर विचार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को दो चार होना पड़ता है। भारतीय साहित्य का दुर्बल बिन्दु उसके इतिहास का अभाव है। इस विषय में मैक्समूलर का कहना है- भारत में इतिहास का सर्वथा अभाव है; इसका कारण यह है कि इतिहास की सुरक्षा का उत्तरदायित्व ब्राह्मण वर्ग पर था जिसने संसार की नश्वरता को समझ लिया था और जो परमतत्व को ही महत्व देता था। इसके प्रतिकूल यूनानी लोग सांसारिक व्यक्ति थे और वे भौतिक सुख सुविधा और सम्पन्नता को जीवन का परम ध्येय समझते थे। इसीलिये यूनानी लोग इतिहास को सुरक्षित रख सके जबकि भारतीय इस दिशा में उदासीन रहे । मैकाडनल ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं ‘इतिहास भारतीय साहित्य का एक दुर्बल बिन्दु है। वस्तुत: इसकी सत्ता ही विद्यमान नहीं है। ऐतिहासिक बुद्धि का अत्यन्ताभाव इसका एक ऐसा लक्षण है कि संस्कृत साहित्य का सम्पूर्ण मार्ग इस दोष की छाया से आक्रान्त होकर अन्धकाराच्छन्न हो गया है। यह साहित्य ठक तिथि निर्धारण की पूर्ण अनुपस्थिति से पीडित है और इसकी पीडा भोग रहा है। यह इस सीमा तक सच है कि भारतीय कवियों में सबसे बड़े कवि कालिदास का समय बहुत समय तक एक हजार वर्ष की सीमाओं के अन्तर्गत विवाद का विषय बना रहा और अब भी एक या दो शताब्दियों की सीमा के बीच सन्देह से भरा हुआ है। इस प्रकार