पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३६

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( सत्ताइस ) नृत्त, नृत्य और नाट्य- नृत्यकला के ये तीन पारिभाषिक शब्द हैं। नृत्त और नृत्य शब्द नृती' गात्रविक्षेपे धातु से बने हैं जिसका अर्थ होता है अंग सञ्चालन । नाट्य शब्द नट् धातु से बना है जिसका अर्थ है अवस्पन्दन अर्थात् अंगों का किञ्चित संचलन। 'नृत्त में किसी प्रकार की भावाभिव्यक्ति नहीं होती। इसमें भाव का नहीं ताल और लय का अनुसरण किया जाता है। ताल और लय के अधीन हाथ, पैर, नेत्र, गर्दन इत्यादि का इस प्रकार चलाना जिसमें एक सुन्दरता उत्पन्न हो जाय नृत्त कहलाता है। नर्तकियां रंगमश्च पर आकर अंग सञ्चालन के द्वारा दर्शकों के मन को खींच लेती हैं यही 'नृत्त' है। यह दर्शन की वस्तु है, सुनने के लिये हाथ की ताली (ताल) का व्रत, मध्यम और विलम्बित लय से शब्द मात्र होता है। यह नृत्त संसार के प्रायः सभी देशों में प्रचलित है और नाट्य के उद्भव में इसका बहुत बड़ा योगदान रहा है। धार्मिक उत्सवों, त्योहारों, मेला दशहरा आदि समारोहों, फसल की कटाई वोआई आदि अवसरों पर हर्ष को प्रकट करने के लिये नृत्त की योजना की जाती है। विवाह पुत्र जन्म इत्यादि हर्ष के अवसरों पर इसका आयोजन मन को खींच लेता है; दुख के अवसरों पर इसको वर्जित किया गया है। नाट्य में इसका बहुत अधिक योगदान है। ग्रीक नाट्य का उद्भव इस प्रकार के नृत्यों से ही हुआ है। अंग्रेजी नाट्य के प्रारम्भ में इस प्रकार की परम्परा विद्यमान थी। अंग सञ्चालन का दूसरा प्रकार है नृत्य। इसमें पदार्थाभिनय किया जाता है। पानी भरने, घड़े को सर पर रखने शीशा देखकर शृङ्गार करने इत्यादि की क्रियायें हाथों के संकेत से प्रकट करते हुये जो अंग संचालन किया जाता है जिसमें पदार्थामिनय के साथ पैर निरन्तर गतिशील रहते हैं और नेत्र इत्यादि अंगों की चेष्टाएँ भी चलती रहती हैं। नृत्त और नृत्य दोनों के दो दो भेद होते हैं- कोमल नृत्य जिसे लास्य कहा जाता है और कठोर नृत्य जिसे ताण्डव की संज्ञा दी जाती है। तीसरा स्तर नाट्य का आता है । यह रसाश्रित होता है। रस निष्पत्ति के लिये विभाव अनुभाव इत्यादि के परिशीलन की आवश्यकता होती है जिनका परिज्ञान वाक्यार्थ के द्वारा होता है। अतः वाक्यार्थामिनय को नाट्य कहा जाता है। इस प्रकार गात्रविक्षेप मात्र नृत्त, भावामिनय नृत्य और वाक्यार्थाभिनय नाट्य कहलाता है। नृत्त का आश्रय नृत्य में और इन दोनों का आश्रय नाट्य में लिया जाता है। दशरुपक नाट्य के प्रकार हैं जिनमें प्रधानता वाक्यार्थाभिनय की रहती है। रसाश्रित ठक्त भेदों के अतिरिक्त नृत्य के आश्रित भी कुछ भेद होते हैं जिन्हें विश्वनाथ ने ठपरूपक की संज्ञा दी है और अब सामान्यतः यह संज्ञा स्वीकार की जाती उपरूपक भेदों का सर्वेक्षण उपरूपक नामकरण तो सम्भवतः विश्वनाथ का ही दिया हुआ है किन्तु इनके भेदों