( छब्बीस ) (९) वीथी- इसका अर्थ है मार्ग। इसके १३ अंग बतलाये गये हैं जो नाटकादि सभी रूपकों में होते हैं। इस प्रकार यह एक मार्ग है जिससे होकर नाटक की अन्यविधाओं तक पहुंचा जा सकता है। नाट्यदर्पण में वीथी का अर्थ टेढा मेढा मार्ग कर इसमें वक्रोक्ति की प्रधानता बतलाई गई है। कीथ ने एक अन्य मत का भी उल्लेख किया है कि वीथी का अर्थ होता है माला। माला में जिस प्रकार अनेक रूपों के पुष्पों का समावेश होता है उसी प्रकार वीथी में भी अनेक रस सम्मिलित रहते हैं। इसमें भी भाण के समान आकाशभाषित का प्रयोग होता है। इसका नायक उत्तम, मध्यम या अधम कोई भी हो सकता है। या तो कोई एक पात्र आकाश भाषित करता है या दो तीन पात्र संवाद का प्रयोग करते हैं। क्रमशः सभी रस प्रयुक्त हो सकते हैं। अन्य सब बातें भाण के समान ही होती हैं। कतिपय आचार्य वीथी में कैशिकी वृत्ति को स्वीकार करते हैं। किन्तु नाट्यशास्त्र में इसे स्वीकार नहीं किया गया है। इसमें एक ही अंक में कई अर्थप्रकृतियां होती हैं। सन्धियां केवल दो ही होती हैं मुख और प्रतिमुख। इसका कोई प्रतिष्ठित उदाहरण नहीं मिलता। विश्वनाथ ने मालविका नामक वीथी का उल्लेख किया है। छोटे रुपकों के उक्त ८ भेद केवल ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। अब इनका प्रचलन साहित्य जगत में विल्कुल नहीं है। पुराने उदाहरण भी बहुत कम पाये जाते हैं। कुछ प्रकार तो ऐसे हैं कि उनका एक भी उदाहरण नहीं मिलता। यह सच है कि अधिकांश प्राचीन साहित्य लुप्त हो गया है। सम्भव है किसी समय इन सभी की परम्परा विद्यमान रही हो। यह भी सम्भव है जैसा कुछ लोग मानते हैं कि एक ही रचना को लेकर इन प्रकारों के लक्षण बना दिये गये हैं और इनका नामकरण कर दिया गया हो। वस्तुतः उपलब्ध साहित्य तो ऐसी ही कहानी कहता है। कुछ प्रकारों के अधिक उदाहरण मिलते उपरूपक नृत्य और संगीत नाट्य की उपरंजक कलाएँ हैं। नाटकों में इन कलाओं का अनिवार्य उपयोग होता है। भरत का कथन- 'नृत्य और गीत का इतना अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये कि कथानक बहुत दूर पड़ जाय और न वस्तु का इतना विस्तार करना चाहिये कि नृत्यगीत का अवसर ही न रहे। यह कथन स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि नाट्य का नृत्य और गीत से अविच्छेद्य सम्बन्ध है। वैसे तो प्रत्येक नाट्यकृति में नृत्य का योगदान रहता ही है किन्तु कतिपय नाट्यकृतियों में वस्तु बहुत थोड़ी होती है- अधिक विस्तार नृत्य का ही होता है उनका उद्देश्य नृत्य का आनन्द देना ही होता है; कथानक तो योजना के लिये सम्मिलित कर लिया जाता है। इस प्रकार के रूपकों को विश्वनाथ ने उपरूपक की संज्ञा दी है यद्यपि उनकी परम्परा विश्वनाथ के बहुत पहले चल रही
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