पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३४

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( पच्चीस ) (७) भाण- यह भणधातु से बना शब्द है जिसका अर्थ है कथन करना। इसमें जनता का मनोरंजन कह कर किया जाता है अभिनय बहुत कम होता है। इसीलिये इसमें भारती वृत्ति की प्रधानता होती है। वह रंगमश्च पर आकर या तो अपनी वीरता या शृङ्गारिक चेष्टाओं का वर्णन करता है या दूसरों की वीरता इत्यादि का वर्णन करताहै । इसीलिये इसमें शृङ्गार और वीर की प्रधानता रहती है। अन्य रस अंगरूप में आते हैं। इसका मुख्य ठद्देश्य लोकानुरंजन होता है क्योंकि इसमें विट, धूर्त, कुट्टिनी इत्यादि का वर्णन किया जाता है। इन बातों का ज्ञान तो सामान्य स्तर से ऊंचे राज पुरुषादि को भी अभीष्ट है। इसमें कोई धूर्त रंगमञ्च पर आता है और विभिन्न घटनाओं का वर्णन इस रूप में करता है कि उपस्थित जनता उसमें अनुरंजन प्राप्त करती है। वह या तो बदमाशों, वेश्याओं, व्यभिचारिणी औरतों, कुट्टनियों और दूतियों का वर्णन कर वातावरण को शृङ्गारमय बना देता है या धूतों चोरों जुआरियों के साहस पूर्ण कृत्यों का वर्णण कर वीरस की सृष्टि करता है। गणिकायें, मेष युद्धमुक्केबाजी, दो प्रतिद्वन्दियों के झगड़े, मदन महोत्सव इत्यादि सामान्य विषय हैं जिनका समावेश भाण में होता है। सुनाने वाला व्यक्ति किसी कल्पित व्यक्ति से वार्तालाप करता है और आकाश की ओर देखकर सुनने का अभिनय करते हुये उसकी उक्तियों को देहराता जाता है तथा उसकी ओर से भी उत्तर प्रत्युत्तर करता जाता है। इसमें सभी कुछ वाचिक होता है; इसलिये केवल भारती वृत्ति उसमें रहती है। यद्यपि वीर और शङ्गार का इसमें उपादान किया जाता है फिर भी इसमें न कैशिकी मानी जाती है न सात्वती और न आरभटी । चतुर्भाणी चारभाणों का एक संकलन है। इसका प्रचार बहुत हुआ है और इसकी अनेक कृतियां उपलब्ध होती हैं। (८) प्रहसन- यह एक अन्वर्थ संज्ञा है; इसका मुख्य प्रवृत्ति निमित्त मजाक उड़ाना है। भरत के अनुसार यह दो प्रकार का होता है- शुद्ध और संकीर्ण। भरत का संकीर्ण दशरुपककार का विकृत है और संकीर्ण एक नवीन भेद है। शुद्ध प्रहसन में किसी बौद्ध सन्यासी, किसी शैव, वैष्णव या भगवद्भक्त की हंसी उड़ाई जाती है। इसी प्रकार कोई तापस भिक्षु, श्रोत्रिय या ब्राह्मण भी प्रहसन में हास्य का विषय हो सकता है। विकृत प्रहसन में वेश्या, चेट, नपुंसक, धूर्त वदमाश, कुट्टिनी, दूती इत्यादि का मजाक उड़ाया जाता है। यदि इसमें वीथी के अंगों का साङ्कर्य हो जाय तो यह संकीर्ण प्रहसन कहा जाता है। इसमें अभिनेता जिसकी हंसी उड़ाना चाहता है उसकी जैसी बोली, वेश, चेष्टा इत्यादि बनाकर लोगों को हंसाता है, उसकी भांति चाल चलता है और उन्ही की हास्यजनक वस्तुओं को दिखलाता है। इसमें एक या अधिक पात्र अभिनय करते हैं। इसका प्रधान रस हास्य होता है तथा दूसरे रस भी हास्य पर्यवसायी ही होते हैं। विश्वनाथ के अनुसार यह दो अंकों का भी हो सकता है। इस विधा की सुदीर्ष परम्परा भारतीय साहित्य में रही है और प्रहसन परक कई कृतियां उपलब्ध होती हैं। मत्तविलास इसका पुराना उदाहरण है। लटकमेलक दो अंकों में लिखा प्रहसन है। धूर्तसमागम एक अन्य प्रहसन है।