पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३३

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( चोबीस ) नायक ठद्धत होता है और शीघ्र अभीष्ट फल प्राप्त कर लेना चाहता है। इसीलिये बीजोपन्यास के बाद प्रयत्न दिखलाते हुये फल तक पहुंच जाया जाता है। इसमें तीन सन्धियां होती हैं- मुख, प्रतिमुख और निर्वहण। भरत का मत है कि इसका नायक कोई राजर्षि होता है; दिव्यपात्र नायक नहीं हो सकता। किन्तु साहित्यदर्पण में दिव्य पुरुष का भी नायक होना स्वीकार कर लिया गया है। युद्ध या पुरुष का भी नायक होना स्वीकार कर लिया गया है। युद्ध या संघर्ष का कारण कोई स्त्री नहीं हो सकती। इसीलिये इसमें स्त्री पात्र (नायिका) का होना अनिवार्य नहीं माना गया है। कथानक के औद्धत्य के अनुसार ही ओजगुण, दीप्तरस और आरभटी वृत्ति का इसमें प्राधान्य बतलाया गया है। भास का मध्यमव्यायोग और वत्सराज का किरातार्जुनीय इसके उदाहरण हैं। (६) अङ्क (उत्सृष्टिकाङ्क) - अंक नाम से ही इसका एकाङ्की होना सिद्ध हो जाता है। नाटक इत्यादि में रचना के खण्डों को भी अंक नाम दिया गया है। उस अंक से यह अंक बड़ा भी होता है और भिन्न थी। इसकी शब्द की व्युत्पत्ति साहित्यदर्पण में वह बतलाई गयी है- ‘उक्रान्ता विलोमरूपसृष्टिर्यत्र’ अर्थात् जिसमें सृष्टि विलोम रूप हो। किन्तु इसका आशय क्या है यह समझ में नहीं आता। नाट्यदर्पण में व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है- 'उक्रमणोन्मुखासृष्टिर्यत्र उत्सृष्टिकाः शोचन्त्यः स्त्रियः ताभिरङ्कितत्वात् उत्सृष्टैकाङ्क' अर्थात् उत्सृष्टिका ऐसी स्त्रियों को कहा जाता है जिनका जीवन उक्रमण की ओर जा रहा है अर्थात् विलाप करने वाली स्त्रियां उनसे अंकित होने के कारण उसे उत्सृष्टिकाङ्क कहा जाता है। स्त्रियों का विलाप प्रलाप ही इसकी सामान्य विशेषता है। सामान्य रूप से इसका वृत्त इसकी सामान्य विशेषता है। सामान्य रूप से इसका वृत्त ख्यात (प्रसिद्धहोता है। किन्तु भरत ने कहीं कहीं अख्यात वृत्त में भी इसकी सत्ता स्वीकार की है। साहित्य दर्पण के अनुसार प्रसिद्ध इतिवृत्त को ही कवि अपनी बुद्धि से प्रपञ्चित कर उसे नया रूप दे देता है। इसमें जय, पराजय दिखलाये जाते हैं। शौर्यमद से अवलिप्त लोग परस्पर दोषों की घोषणा करते हुये वाग्युद्ध भी करते हैं। किन्तु यह वाग्युद्ध होता उन्हीं का है जो शोक-परायण होते हैं। अत: इसमें करुण रस की प्रधानता होती है। वैसे शोक के अंग रूप में निर्वेदजनक वचनों का समावेश होता ही है और व्याकुल लोगों की नाना चेष्टाओं का वर्णन भी किया जाता है। मुख्य विषय स्त्रियों का परिदेवन ही होता है जिसके कारणरूप में संघर्ष और युद्ध का चित्रण किया जाता है। संघर्ष और युद्ध का कथन मात्र होता है। उसका प्रदर्शन रंगमश्च पर नहीं किया जाता । इसके पात्र अधिकांश प्राकृत जन ही होते हैं। दिव्य पात्रों को विलापप्रलाप करते हुये दिखलाना उचित नहीं माना जाता । इसमें सात्वती, आरभटी और कैशकी वृत्तियां नहीं होतीं । कीथ का कहना है कि इस विधा का प्रयोग रूपक के अन्तर्गत रूपक को दिखलाने के लिये होता है। कहीं कहीं इस प्रकार के अन्तर्वर्ती अंक को फंक्षणक भी कहा गया है। भास का ठरूभंग इसका उदाहरण है।