पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३७

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( अट्ठाइस ) की परम्परा पुरानी है। भरत ने तो इनका उल्लेख नहीं किया है- सम्भवत: भरत के समय तक नृत्य के आधार पर अभिनय भेदों की परम्परा का प्रचलन नहीं हुआ था। कोहल के समय तक ये नृत्य रूपक कुछ कुछ स्वरूप लेने लगे थे। कुछ लोग कोहल को ही इस विधा का प्रवर्तक मानते हैं। किन्तु इनका सर्वप्रथम व्यवस्थित उल्लेख धनञ्जय ने दशरूपक में किया। इन्होंने सम्भवत: सर्वप्रथम प्रश्न उठाया है कि जबकि डोम्बी,श्रीगदित इत्यादि नृत्य पर आधारित ७ भेद और पाये जाते हैं तब रूपकों की संख्या १० मानना कहां तक ठीक है और इसके नृत्त, नृत्य और नाट्य के भेद समझाते हुये कहा है कि नृत्याश्रित रूपकों का स्वरुप ही भिन्न होता है। वे रसाश्रित न होकर ताल लय या भावाश्रित होते हैं। अत: उन्हें रूपकों में सन्निविष्ट नहीं किया जा सकता। धनञ्जय के माने हुये नृत्याश्रित ७ रूपक हैं- डोम्बी, श्रीगदित, भाण, भाणी, प्रस्थान रासक और काव्य। इस विचारधारा को उनके कनिष्ठ समसामयिक अभिनवगुप्त ने आगे बढ़ाया। इन्होंने ८ भेद : स्वीकार किये जिनमें श्रीगदित और काव्य को छोड़कर ५ भेद तो धनञ्जय के ही स्वीकार किये; उनमें तीन और जोड़ दिये- प्रेक्षणकरासाक्रीड और हल्लीसक। हेमचन्द्र ने १० नृत्यरूपकों का उल्लेख किया- जिनमें अभिनवगुप्त के ८ धनञ्जय का श्रीगदित और अपना गोष्ठी नामक एक भेद और जोड़कर १० की संख्या पूरी की। हेमचन्द्र के बाद रामचन्द्र गुणचन्द्र ने इस संख्या को १३ तक पहुंचाया। इनमें डोम्बी को छोड़कर ६ भेद धनञ्जय से, हल्लीसक और प्रेक्षणक अभिनवगुप्त से, गोष्ठी हेमचन्द्र से तथा ४ अपने सट्टकदुर्मिलिता, शय्या और नाट्यरासक जोड़कर (६ + २ + १ + ४) १३ की संख्या पूरी की। इनका नाट्यरासक अभिनव का रासाक्रीड ही है । अग्निपुराण में १७ भेद किये गये और शारदातनय ने इनकी संख्या २० कर दी । इनमें रामचन्द्र गुणचन्द्र के शय्या और भाण को छोड़कर १३ में ११ भेद जिनमें दुर्मिलिता को दुर्मल्लिका और रासक के स्थान पर लासक कर दियागया। धनञ्जय द्वारा निर्दिष्ट डोम्बी और हर्ष द्वारा उल्लिखित तोटक शामिल कर लेने से १३ भेद बन गये। इनमें ७ भेद और जोड़ दिये गये- नाटिका, १ संल्लापशिल्पकउल्लाप्यक,मल्लिका, कल्पवल्ली और पारिजातक । इस प्रकार शारदातनय के २० भेद हो गये। विश्वनाथ के समय तक आते आते नृत्य रुपकों की यही स्थिति थी। विश्वनाथ ने इन्हें उपरूपक की संज्ञा प्रदान की और उनकी संख्या १८ मानकर उन्हें परिनिष्ठित कर दिया । विश्वनाथ द्वारा मान्य संख्या और उनका स्वरूप ही साहित्य जगत में प्रतिष्ठित है और उसे ही अन्तिम माना जाता है। विश्वनाथ ने शारदातनय के २० भेदों में शय्या, भाण, मल्लिका, कल्पवल्ली और पारिजातक ये ५ भेद छोड़ दिये। इस प्रकार शारदातनय के १५ भेद स्वीकार कर लिये तथा तीन अपनी ओर से जोड़ दिये विलासिका, प्रकरणी और भाव । वस्तुतः प्रकरणी की कल्पना नाटिका के आधार पर की गई है; क्योंकि प्रधान रूपक दो ही हैं- नाटक और प्रकरण। अतएव नाटिका के समान ही प्रकरणी भी एक भेद मान लिया गया। नाटिका और प्रकरणी में वही भेद हैं जो नाटक