( सोलह ) जाने का भाव ये सब तत्व सम्मिलित हो जाते हैं। अभिनय में वेषभूषा भी आ जाती है। आशय यह है कि नाटक शब्द में ही चारो प्रकार के अभिनय सम्मिलित हो जाते हैं- कायिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य। शास्त्रीय पारिभाषिकता के अनुसार नाटक एक प्रकार की विधा है या एक विशिष्ट प्रकार है। अत: आचायों ने सामान्य अर्थ में एक नये शब्द ‘रूपक' को अपनाया है जिसका अर्थ है रूप का आरोप कर अभिनय में प्रवृत्त होना। कुछ रूपक ऐसे होते हैं जिनमें सभी प्रकार के अभिनयों का अवसर होता है; इस प्रकार के अभिनयप्रधान रूपकों को सामान्य रूपक कहा जाता है इनके अतिरिक्त कतिपय अन्य प्रकार के रूपक ऐसे भी होते हैं जिनमें सामान्य अभिनय की नहीं नृत्य गीत की प्रधानता होती है। इस प्रकार के रूपकों को उपरूपक की संज्ञा दी जाती है। रूपक दो प्रकार के होते हैं- सभी नाट्यांगों का संघात रूप में अभिनय और आस्वादन। इन्हें प्रधान रूपक कहा जाता है। जिन रूपकों को परिपूर्ण बनाने की चेष्टा नहीं की जाती और न उनका आयाम विस्तीर्ण होता है उन्हें अप्रधान रूपक कहा जाता है। इस भांति रूपक तीन प्रकार के हो जाते हैं- प्रधान रूपक, अप्रधान रूपक और उपरूपक। प्रधान रूपक अभिनय का उद्देश्य है रसास्वादन। कवि और अभिनेता दर्शकों को प्रेम, क्रोध, भय,उत्साह इत्यादि किसी भाव का आस्वादन कराना चाहता है । किन्तु यों ही तो आस्वादन हो नहीं सकता। उसके लिये परिस्थिति बनानी पड़ती है और किसी व्यक्ति या व्यक्तियों पर ठसे ढाल कर दिखलाया जाता है। व्यक्ति तो बहाना मात्र होते हैं; सत्य तो एक मात्र भाव ही होता है। उस भाव के परिणाम स्वरूप जो सुखदुःख इत्यादि प्रदर्शित किये जाते हैं उन्हीं के प्रभाव में वहकर दर्शक ठन भावनाओं का आनन्द लेता है। कवि या अभिनेता ऐसे आवरण में भाव का प्रदर्शन करता है कि सुखमय भावनाओं से जितना आनन्द आता है ठतना ही या उससे अधिक दुःखात्मक भावनायें आनन्द देने वाली बन जाती हैं। इसीलिये दुःखात्मक भावनाओं का प्रदर्शन करने वाले रुपक अधिक पसन्द किये जाते हैं और लोग अत्यन्त ठत्कण्ठा के साथ उन्हें देखने में प्रवृत्त होते हैं। जिन पात्रों पर ढालकर भावना प्रदर्शित की जाती है वे पात्र दो प्रकार के होते हैं। या तो वे परिचित होते हैं या अपरिचित परिचित पात्रों के विषय में दर्शकों की भावनायें बनी बनाई होती हैं, अतः उन्हें बड़े चढे रूप में प्रदर्शित करने में कवि को भी आसानी होती है और दर्शक भी उस जानी मानी भावना का अपने संस्कारों की सहायता से अधिकाधिक आनन्द ले सकते हैं। राम, कृष्ण, रावण, कंस इत्यादि इतिहास पुराण पात्रों के प्रति दर्शकों को नई भावना का परिचय प्राप्त नहीं करना पड़ता। कवि को भी उसके निर्माण में सुविधा रहती है। दूसरे प्रकार के पात्र काल्पनिक होते हैं। उनके विषय में कवि, पाठक और दर्शक सभी को भावना और ठसके चरित्र के स्वरूप के विषय में
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