पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२४

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( पन्द्रह ) भेद, विभिन्न प्रदेशों के रहन सहन, पहिरावा उढावा, नायकनायिका भेद, उनके सहायक, संगीत अभिनय इत्यादि नाट्योपयोगी सभी तत्वों का समावेश कर ठसे अभिनेताओं और नर्तकों सभी के लिये अपरिहार्य ग्रन्थ बना दिया गया है। भारतीय नाट्यकला पर एक प्रभाव की बहुत कुछ चर्चा की जाती है किन्तु भरत ने नाट्यविद्या के भेदोपभेदों में जिस मौलिक चिन्तन का परिचय दिया है वह सर्वथा नई तथा सर्वाङ्ग पूर्ण दिशा है। ग्रीक साहित्य में नाटक के केवल तीन प्रकार माने गये थे ब्रासदी,कामदी और उभयमिश्रण। किन्तु भारतीय भेदोपभेद कल्पना में सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक इत्यादि का भी रसास्वादन के साथ विचार किया गया है। नाट्यशास्त्र के आचार्य ने नाट्य के प्रारम्भ, वस्तु के विकास बीज, फल, पताका,प्रकरी,पताका स्थानक, अथोपक्षेपक इत्यादि नाट्यरचना के विभिन्न उपयोगी सिद्धान्तों पर विस्तार पूर्वक विचार कर सबका उद्देश्य रसास्वादन निश्चित किया है उसके लिये वस्तु, नेता और रस की विविध व्याख्या प्रस्तुत की और सिद्धान्तित किया कि जिन नाट्यप्रयोगों में पूर्ण रसास्वादन के लिये सबका यथोचित मात्रा में सन्निवेश उचित बतलाया गया और यह सिद्धान्तत किया गया कि जिन नाट्य प्रयोगों में पूर्ण रसास्वादन की सम्भावना हो वे ही पूर्ण नाटक कहे जाने के अधिकारी हैं। वे ही प्रधान रूपक कहे जाते हैं। किन्तु इस प्रकार के नाटकों लिये जिन संविधानकों की आवश्यकता होती है वे कष्टसाध्य और व्ययसाध्य होते हैं। उनके लिये अधिक समय देना पड़ता है; खर्चाली रंगशालायें बनवानी पड़ती हैं। यह व्यवस्था बड़े शहरों और श्रीमानों के लिये तो सुलभ है उनसे आम जनता का व्यापक परिमाण में अनुरञ्जन नहीं हो सकता। सर्वसाधारण के अनुरञ्जन के लिये छोटे छोटे सरल नाट्यों की योजना आवश्यक होती है जिनमें अपेक्षाकृत व्यय भी कम हो और रंगशालायें भी इतनी छोटी हों कि या तो थोड़े समय में ही जमाई जा सकें या उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सकें। साथ ही अभिनय के लिये छोटे छोटे कथानक होने चाहिये जिनमें समय भी कम लगे और उनके लिये प्रशिक्षण और अभ्यास (रिहर्सल) भी कम अपेक्षित हो। इसी उद्देश्य से भारतीय आचार्यों ने प्रधान रूपकों के साथ छोटे छोटे अप्रधान रूपकों की भी कल्पना की । कहा जाता है पिछले दिनों यूरोप में भी लघुनाटक आन्दोलन चला था । नाटक शब्द की निष्पत्ति णट् धातु से हुई है जिसका अर्थ है नृति या नाचना। वस्तुतः इसका सम्बन्ध नृती गात्रनिक्षेपे’ धातु से है जिसका अर्थ होता है अंग संचालन अर्थात् आङ्गिक अभिनय । इस प्रकार 'नाटक' का विशेष सम्बन्ध नृत्यकला से है। नृत्य के साथ संगीत का भी उपकार्योपकारक भाव सम्बन्ध है। एक दूसरी धातु ’नट’ अवस्पन्दन अर्थ में भी है जिसका अर्थ है द्रवित होना। इस प्रकार ’नटके क्रियाकलाप को नाटक की संज्ञा दी जाती है। नट के क्रिया कलाप से नृत्य, गीत, अभिनय, हृदय के द्रवित हो १. (इन पर विचार संस्कृत नाट्यकोश के दूसरे खण्ड का विषय है। सुविधा के लिये परिशिष्ट में इन विषयों का संक्षिप्त परिचय दे दिया गया है। वहीं देखना चाहिये ।