पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२३

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( चौदह ) भगवान बुद्ध के गुणों में उन्हें नाट्यगुणालंकृत भी कहा गया है। ललितविस्तर में भी हास्य, लास्य, नाट्य इत्यादि सभी कलाओं में मूर्धन्य बुद्ध ही है। नाट्य साहित्य के क्षेत्र में बौद्ध और जैन साहित्य का योगदान ठपेक्षणीय नहीं हो सकता। नाट्यशास्त्र साक्ष्य शास्त्र का काम सर्वदा लक्ष्य की व्यवस्था करना और उसे समीक्षा पूर्वक नये प्रतिमानों द्वारा बुद्धि गम्य बनाना होता है। लक्ष्य कभी भी कल्पित नहीं होता। उदाहरण के लिये भाषा एक स्वाभाविक प्रवाह में सतत गतिमान स्वाभाविक व्यवहार की वस्तु है। पाणिनि ने उसी प्रचलित भाषा को अपने सिद्धान्तों द्वारा परिष्कृत रूप में प्रस्तुत कर व्यवहर्ताओं के लिये बोधगम्य बनाया। भौतिक द्रव्यों और औषधियों में रोग निवृत्त करने की स्वाभाविक शक्ति है; आयुर्वेदज्ञ उसमें उस शक्ति का आधान नहीं करतेकिन्तु आयुर्वेद शास्त्रकार उन औषधियों को उपयोगी बनाने के लिये उनकी व्यवस्था और व्याख्यामात्र करने के श्रेय के अधिकारी है। प्रतिभा एक जन्मजात गुण है। उसके प्रकाश में जो अनुपम कलाकृतियां निर्मित होती हैं उनमें आनन्द देने की स्वाभाविक शक्ति सन्निहित होती हैं। कलाकार की उन्हीं कृतियों को शास्त्रकार सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं में बाँध कर परिशीलकों के लिये सुज्ञेय बनाने का प्रयल करते हैं। काव्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य आनन्दवर्धन ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि शास्त्रप्रवृत्ति लक्ष्यपरीक्षा पर आधारित होती है। ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास भरत का महान् ग्रन्थ नाट्यशास्त्र परिशीलकों के सामने आता है। निश्चित है कि नाटकों को जो शास्त्रीय रूप भरत ने दिया है उसके लक्ष्य प्रन्थ अवश्य रहे होंगे। स्वभावतः प्रश्न पैदा होता है अर्थप्रकृतियों सन्धियों सन्ध्यङ्गों एवं अथपक्षेपकों, पूर्वरंग और प्रस्तावना की जो व्याख्या और व्यवस्था भरत ने प्रस्तुत की है उस सबका आधार क्या था; क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में कुछ न कुछ कृतियां अवश्य रही होंगी। उनके अभाव में इस प्रकार के शास्त्र की रचना सम्भव ही नहीं थी। केवल इतना ही नहीं भरत की कृति को देखकर स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है उनके पहले भी नाट्यशास्त्र पर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है। वर्तमान नाट्य शास्त्र के प्रथम अध्याय में भरत ने १०० शिष्यों का उल्लेख किया है जिनमें कई ऐसे हैं जिनका उल्लेख भरत के अतिरिक्त कई अन्य आचार्यों ने भी किया है और उनके नाम पर कतिपय सिद्धान्तों का भी निर्देश किया है। ऐसे आचायों में कोहल, दत्तिल, शालिकर्ण, वादरायण, नखकुट्ट, अश्मकुट् इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। स्वयं भरत ने कहीं कहीं वंश परम्परागत (आनुवंश्य) श्लोकों के और कहीं कहीं सूत्रानुबद्ध आर्याओं के उद्धरण दिये हैं। इसमें लक्ष्यग्रन्थों के साथ शास्त्रीयग्रन्थों की भी परम्परा प्रमाणित होती है। नाट्यशास्त्र स्वयं में एक विश्वकोश (इन्साइक्लोपीडिय) जैसा ग्रन्थ है जिसमें नृत्य, नाट्य,नाट्यवृत्तियां, रूपक १. (बौद्ध नाट्य साहित्य के विषय में देखिये प्रस्तुत कृति का बौद्ध नाट्य साहित्य स्तम्)