पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/२२

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( तेरह ) वलिप्रदानेहमैश्च मन्त्रौषधिसमन्वितैः। भोज्यैर्भक्ष्यैश्चपानैश्च वलिं समुपकल्प्यताम् ॥११२१ नर्तकोर्थपतिर्वापि यसूजां न करिष्यति । न कारयिष्यत्यन्यैर्वा प्राप्तोत्यपचयंतु सः॥ यथाविधि यथादृष्टं यस्तु पूजां करिष्यति । स लप्स्यते शुभानर्थान् स्वर्गलोकं च यास्यति ॥ इस प्रकार नाट्य की उत्पत्ति और उसके प्रचलन में पूजा एवं धार्मिकता का प्रमुख स्थान है। महाभाष्य में कंसवध और बलिबन्ध का उल्लेख किया गया है। दोनों नाटकों की धार्मिकता असन्दिग्ध है। इसमें कृष्णोपासना की प्रधानता है। रासमण्डल का प्रचलन इसका स्पष्ट प्रमाण है। धार्मिकयात्राओं में कृष्णलीला के दृश्य दिखलाये जाने की आम प्रथा है। कृष्ण के समान ही नाट्यकला में शिव और राम का भी महत्वपूर्ण स्थान है। वर्षाकाल के उपरान्त नगरों और गावों में रामलीला की योजना नाट्यकला में राम के महत्व की परिचायक है। नाट्य की स्वरूपस्थिरता में शिव-पार्वती के युग्म का महत्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा प्रचलित लास्य और ताण्डव के समावेश से नाट्य प्रयोग में परिपूर्णता आती है। नाट् और नृत्य के उद्भव और विकास में शिव के नटराज रूप की अभ्यर्थना की जाती है। लिङ्गपूजा अनेक शताब्दियों से प्रचलित रही है। यूरोपीय विद्वानों ने एक और मैक्सिकों में प्रचलित लिंगनृत्यों के आधार पर भारतीय नाटकों का उद्भव भी लिंगपूजा से माना है। लिंगपूजा किसी रूप में वैदिक काल में भी प्रचलित रही है जिसका आर्यविरोधियों के रूप में ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। लिंगपूजा सृष्टि की प्रक्रिया का एक रूप है जो प्रकृति और पुरुष के मिलन का प्रतीक है। प्राचीन साहित्य की अनुपलब्धि में कहा नहीं जा सकता भारतीय आर्यों को लिङ्गपूजा की इस असंस्कृत भावना ने किस सीमा तक प्रभावित किया। ऋग्वेद के प्रतिषेधात्मक विवरण को देखते हुये सम्भव तो यही लगता है की आर्य जाति ने यदि कभी शिव के रूप में नाट्यकला को अपनाया होगा तो वह आनन्दात्मक नटराज रूप ही होगा। वही रूप रसानुकूल है; लिङ्गपूजा उसके अनुकूल नहीं पड़ती। बौद्ध और जैन साहित्य में प्रारम्भ में नाट्यकला और उसकी उपरंजक कलाओं नृत्य गीत इत्यादि के प्रति वितृष्णा ही पाई जाती है सर्वं विलपितं गीतं सर्व नाट्यं विडम्बितम्। [सभी गीत विलाप हैं और सभी नाट्य विडम्बना हैं। किन्तु यह प्रतिरोधी भावना धीरे धीरे दबती गई और बौद्ध साहित्य तथा जैनागमों में उसके प्रति झुकाव कुछ बढ़ता गया। दिव्यावदान, अवदानशतक जैसे बौद्धग्रन्थों में