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श्रीविष्णुगीता।


तुल्यं कर्माद्वयं देवा उदर्के त्वन्तरं महत् ॥ ३८ ॥
मोचनान्मुच्यते वस्तु बन्धनात्तनियम्यते ।
तथा सकामनिष्कामौ देवा जानीत कर्मणी ॥ ३९ ॥
हैमी लौहमयी वापि शृङ्खला किम्विधापि चेत् ।।
पाणिनां बन्धनायैव कल्पते नात्र संशयः ॥ ४० ॥
तथा सकामकर्माऽपि शुभं वाप्यशुभं भवेत् ।
बध्नाति सुदृढ़ जीवानिति जानीत निर्जराः ! ॥४१॥
वासनायाः क्षये जाते तत्त्वज्ञानेन सर्वथा।
कर्तव्यबुद्धया यत्कर्म निष्कामं क्रियतेऽमराः!॥ ४२ ॥
कैवल्यकारणं भूत्वा जीवेभ्यस्तद्धि निश्चितम् ।
यस्या न पुनरावृत्तिस्तां दत्ते सहजां गतिम् ।। ४३ ॥
जीवन्मुक्तोऽथ सम्प्राप्तः सहजां गतिमुत्तमाम् ।
मरुस्थलेऽथवा जह्याच्छरीरं जाह्नवीतटे ॥ ४४॥


है। हे देवगण ! दोनों कर्म तुल्य है किन्तु अन्तिम परिणाममें बडा भेद है॥ ३८ ॥ गांठके बांधनेरूपी कर्म द्वारा जैसे पदार्थ बांधा जाता है वैसे गांठके खोलनेरूपी कर्म द्वारा पदार्थ खुल जाता है। इसी उदाहरणके अनुसार हे देवगण ! सकाम और निष्काम कर्मको जानो ॥ ३१ ॥ लोहनिर्मित अथवा सुवर्णनिर्मित किसी प्रकारकी भी शृंखला हो वह जीवोंको बांधतीही है इसमें सन्देह नहीं ॥ ४० ॥ उसी प्रकार सकाम कर्म्म चाहे शुभ या अशुभ हो वह जीवोंको अच्छी तरह बाँधता ही है, हे देवगण ! सो जानो तत्वज्ञानके द्वारा वासनाके सर्वथा नाश होनेपर कर्तव्यबुद्धिके अनु सार जो कर्म निष्कामभावसे किया जाता है हे देवगण ! वही निश्चय मुक्तिका कारण होकर जिससे पुनरावृत्ति नहीं होती उस सहजगतिको जीवोको देता है ॥ ४२-४३॥ हे देवगण । उत्तम सहजग- तिको प्राप्त जीवन्मुक्त, चाहे मरुस्थलमें शरीरत्यागकरे,