पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/९४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
७४
श्रीविष्णुगीता।


सत्यलोकन्तु सम्प्राप्य शुक्लगत्या समुन्नतम् ।
तत्र कर्मबलेनैव कैवल्यं लभ्यते ध्रुवम् ॥ ३२ ॥
कृष्णगत्यां प्रधानाऽस्ति प्रवृत्तिर्विबुधर्षभाः
'शुक्लगत्यां निवृत्तेस्तु प्राधान्यं परिकीर्तितम् ॥ ३३ ॥
आभ्यां भिन्ना गतिश्चान्या गतिभ्यां समुदाहृता ।
सहजाख्या च वो देवाः ! याऽधिकाराद्वहिर्गता ॥ ३४ ।।
मद्भक्ता धर्मतत्त्वज्ञा आत्मज्ञानरताश्च ये |
त एवैतां महात्मानो लभन्ते सहजां गतिम् ॥ ३५॥ .
तत्त्वज्ञानस्य लाभे ये वासनायाः क्षये तथा ।
कर्मयोगे रता यन्ति जीवन्मुक्तास्तु तां गतिम् ॥ ३६॥
अतीवास्ति सुदुर्जेया गतिर्देवाः ! हि कर्मणः ।
तत्रोदाहरणं ह्येकं विशदं शृणुतामराः ! ॥ ३७॥
ग्रन्थीनां बन्धनं कर्म ग्रन्थिमोचनमित्यपि ।


शुक्लगतिके द्वारा समुन्नत सत्यलोकमें पहुंचकर कर्मके बलसे ही वहां निश्चय मुक्ति प्राप्त कीजाती है ॥ ३२ ॥ हे देवगण ! कृष्णगतिमें प्रवृत्ति प्रधान है और शुक्लगतिमें निवृत्ति प्रधान कहीगई है॥३३ ॥ इन दोनों गतियोंके अतिरिक्त एक तीसरी गति और कहीगई है जिसको सहजगति कहते हैं जो सहजगति हे देवतागण ! आपलोगोंके अधिकारसे बाहर है ॥३४॥ जो धर्मतत्त्वके जाननेवाले, आत्मज्ञानमें तत्पर, मेरे भक्त महापुरुषगण हैं, वे ही इस तीसरी गतिको प्राप्त होते हैं ॥ ३५ ॥ जो वासनाका नाश. तत्त्वज्ञानलाभ और कर्मयोगमें रत हैं, वे जीवन्मुक्तगण सगतिको प्राप्त करते हैं ॥ ३६॥ हे देवतागण ! कर्मकी गति अत्यन्तही दुर्ज्ञेय है । हे देवगण ! इसमें एक स्पष्ट उदाहरण सुनो ॥३७॥ गांठका बांधना भी कर्म है और गांठका खोलना भी कर्म