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श्रीविष्णुगीता।


कर्मणा सहजेन स्युर्ब्रह्माण्डानां त्रयः सदा ॥ १४ ॥
सृष्टिस्थितिलया एते क्रमशो ह्यमितौजसः !
विशिष्टचेतना जीवाः सम्बद्धा जैवकर्मणा ॥ १० ॥
कर्मणैशेन सम्बन्धः पितृणां भवतां तथा ।
ऋषीणां चावताराणां सर्वेषां मे दिवौकसः ! ॥ १६ ॥
कर्मणी ऐशसहजे शुद्धे एव सदा मते ।
शुद्धाशुद्धविभेदस्तु जैवकर्मसु विद्यते ॥ १७ ॥
उभे एते समाख्याते कारणं पुण्यपापयोः ।
कामनाजनितावेतौ भेदौ हि परिकीर्तितौ ॥ १८ ॥
अनाद्यन्तो वासनायाः प्रवाहो ह्येव कारणम् ।
सृष्टेरनाद्यनन्तायाः प्रवाहस्य सुरर्षभाः ! ॥ १९ ॥
वासनानाशमात्रेण कर्मणोः सहजैशयोः।
जैवस्य परिणामः स्याद्दशेयं कर्मयोगिनी ॥ २० ॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।


उनको जैव, सहज और ऐश कहते हैं । हे विपुलबलशाली देवगण ! सहज कर्म द्वारा ब्रह्माण्डोंके उत्पत्ति स्थिति और लय क्रमसे हुआ करते हैं, जैव कर्म के साथ विशिष्टचेतन जीवोंका सम्बन्ध है, और मेरे सब अवतारोंके साथ तथा पितृ ऋषि और आपलोगों के साथ ऐश कर्मका सम्बन्ध है ॥१४-१६॥ ऐश कर्म और सहज कर्म सदा शुद्धही होते हैं । जैव कर्मके दो भेद हैं, एक शुद्ध और एक अशुद्ध ॥ १७ ॥ ये दोनों कर्म पुण्य और पापके कारण होते हैं । ये दोनों भेद कामनाजनित कहे गये हैं ॥ १८॥ हे देवगण ! अनादि अनन्त वासनाप्रवाह ही अनादि अनन्त सृष्टिप्रवाहका कारण है ॥ १६॥ वासनाके नाश होतेही जैवकर्म भी सहज कर्म और ऐश कम्मों में परिणत होजाता है । इस दशाको कर्मयोग कहते हैं ॥२०॥ इस निष्काम कर्मयोगमें प्रारम्भकी विफलता