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श्रीविष्णुगीता।


महाविष्णुरुवाच ॥ ७॥

सृष्टिप्रवाहो विबुधाः ! मदिच्छातः प्रवर्त्तते ।।
आद्यन्तरहितस्तद्वद्विस्तारावधिवर्जितः ॥ ८ ॥
निजानन्दप्रकाशाय साहाय्यात् सच्चितोः स्वयोः।
स्वीयां शक्ति महामायां स्वतः प्रकटयाम्यहम् ॥ ९ ॥
सैव शक्तिश्च मे देवाः ! जगतो जननी मता।
 किन्तु सर्वस्य जगतः स्थित्युत्पत्तिलयेष्वपि ॥ १० ॥
केवलं कारणं कर्म विज्ञेयं सुरसत्तमाः !।
जड़चेतनभेदेन मदीया प्रकृतिर्द्विधा ॥ ११ ॥
विद्या तु चेतना ज्ञेया जडाऽविद्या प्रकीर्तिता।
त्रिगुणा सा समाख्याता तत एव च हेतुतः ॥ १२ ॥
कर्मोत्पत्तेर्हि सा हेतुर्भवतीत्यवधार्यताम् ।
परिणामात्तदुत्पत्तिस्त्रिगुणस्य मता सुराः ! ॥ १३ ॥
जैवैशसहजा भेदाः कर्मणस्तस्य कीर्तिताः।


महाविष्णु बोले ॥७॥

 हे देवगण !अनादि अनन्त और जिसके विस्तारकी अवधि नहीं है ऐसासृष्टि प्रवाह मेरी इच्छासे प्रवाहित रहता है॥८मैं अपने आनन्दको प्रकाशित करने के लिये अपने सत् और चिदभावकी सहायतासे अपनेमेंसे अपनी शक्तिमहामायाको प्रकट करताहूं॥६॥ और हे देवगण ! वही मेरी शक्ति जगत्को प्रसव करती है; परन्तु उत्पत्ति स्थिति और लयों में भी एकमात्र कारण कर्मही है ऐसा जानना चाहिये। जड़ और चेतन भेदसे मेरी प्रकृति दो प्रकारकी है ॥१३-११॥ चेतनमयी विद्या कहाती है और जड़ा अविद्या कहाती है। वह त्रिगुणमयी है और त्रिगुणमयी होनेसे कर्माकी उत्पत्तिका कारण बनआती है, सो जानो। हे देवगण ! त्रिगुणपरिणामसे ही कर्मोकी उत्पत्ति मानी गई है। १२-२३॥ कर्मके तीन भेद हैं,