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श्रीविष्णुगीता।


स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।। २१ ॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह यज्ञभुग्वराः!
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ २२ ॥
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरता देवाः ! नान्यदस्तीति वादिनः ।। २३ ।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगति प्रति ॥ २४ ॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ २५ ॥
यत्र काले ह्यनावृत्तिमावृत्तिञ्चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि विबुधर्षभाः ! ॥ २६ ॥


नहीं है, प्रत्यवाय अर्थात् विघ्न भी नहीं है, इस धर्मका अल्प आचरण भी महाभयसे रक्षा करता है ॥२१॥ हे यज्ञभाग-भोग करनेवालों में श्रेष्ट देवगण ! इस कर्मयोगमें व्यवसायात्मिका अर्थात् निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है किन्तु अव्यवसायी अर्थात् सकाम कर्म करनेवालोकी बुद्धियाँ बहुशाखाओंसे युक्त और अनन्त होती हैं ॥ २२॥ हे देवतागण ! वेदके अर्थवादमें तत्पर, "जगतके अतिरिक्त ईश्वरतत्व और कोई नहीं है" इस प्रकार कहनेवाले, कामात्मा और स्वर्गसुखकी इच्छा करनेवाले जो अज्ञानी जीव हैं वे जन्मकर्मफलप्रद, भोगैश्वर्यप्राप्तिके साधनभूत और यज्ञादिक्रियाविशेषप्राय पुष्पित वाक्य कहते रहते हैं, उन पुष्पित वाक्योंसे विचलितचित्त और भोगैश्वर्यमें आसक्त व्यक्तियोंकी व्यवसायात्मिका बुद्धि समाधिके योग्य नहीं है ॥ २३.२५॥हे देवता गण ! जिस कालमे अर्थात् कालरूप मार्गमे (मरणके पश्चात जाकर) योगिगण अनावृत्ति (मोक्ष) और आवृत्ति (संसारमें पुनः आगमन) प्राप्त होते हैं उस.कालरूप मार्गका वर्णन करता हूं॥ २६ ॥