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श्रीविष्णुगीता।


उत्क्रामन्तं स्थितम्वाऽपि भुजानम्वा गुणान्वितम् ।।
विमूढ़ा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १६८ ॥
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ १६९ ॥
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १७० ॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७१ ॥
यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १७२ ।।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
र स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन निर्जराः ! ॥१७३॥


करता है ॥ १६७॥ एक देहसे देहान्तरमें जानेवाले देहमें स्थित विषयोपभोगकारी और इन्द्रियादिसे युक्त देहीको विमूढ़ व्यक्ति नहीं देखते हैं किन्तु आत्मज्ञानी देखते हैं ॥ १६८ ॥ संयतचित्त योगिगण इस देहीको देहमें अवस्थित देखते हैं और ( शास्त्रादि पाठ द्वारा) यत्नशील होनेपर भी आत्मतत्त्वानभिज्ञ मन्दमति इसको देख नहीं सक्ते ॥१६६ ॥ क्षर और अक्षर नामक ये दो पुरुष लोकमें प्रसिद्ध हैं उनमेंसे सब भूतगण क्षर पुरुष और कूटस्थ चैतन्य अक्षर पुरुष कहाजाता है ॥१७०॥ इन क्षर और अक्षरसे अन्य उत्तम पुरुष परमात्मा कहे गये हैं जो ईश्वर और निर्विकार हैं एवं लोकत्रयमें प्रविष्ट होकर पालन करते हैं ॥ १७१ ॥ क्योंकि मैं क्षरसे अतीत हूँ, और अक्षरकी अपेक्षा भी उत्तम हूँ इसी कारण लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम (कहाजाकर)प्रसिद्ध हूँ ॥१७२॥ हे देवतागण ! इस प्रकार निश्वित बुद्धि होकर जो मुझको पुरुषोत्तम समझता है वह सर्वज्ञ