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श्रीविष्णुगीता।


प्रकृतिस्त्रिगुणा या मे प्रथमं तीन गुणान् स्वकान् । ।
स्वस्मिन् सम्यक् विलय्यैव तदा सा मयि लीयते ॥ १६२ ।।
आदौ देवाः ! त्रयो भावाः स्थिताः स्वस्वस्वरूपतः ।
पश्चादद्वैतरूपत्वमाश्रयन्तीति सम्मतम् ॥ १६३ ॥
गुणदर्शनहेतुर्हि तस्माद्भावः प्रकीर्तितः ।
साधकानां सुराः ! भावो ह्यवलम्बनमन्तिमम् ॥ १६४ ॥
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःपष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ १६५ ।।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ १६६॥
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनञ्च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ १६७ ॥


॥१६०-१६१ ॥ त्रिगुणमयी मेरी प्रकृति पहिले तीनों अपने गुणोंको अपने में सम्यक लय करके ही तब वह मुझमें विलीन होती है ॥१६२ ॥ हे देवगण ! प्रथम तीनों भाव अपने अपने स्वरूपसे प्रकट रहकर पीछे अद्वैत रूपको आश्रय करते हैं, यह निश्चय है ॥ १६३ ॥ इस कारणसे भाव गुणदर्शनका हेतु कहागया है। हे देवतागण ! साधकोंका अन्तिम अवलम्बन भाव है ॥ १६४॥ मेरा ही अंश सनातन अर्थात् मायाके कारण सदा संसारीरूपसे प्रसिद्ध .जीव, प्रकृतिमें स्थित मन और पञ्चेन्द्रियोंको जीवलोकमें आकर्षण करता है ॥१६५ ॥ ईश्वर अर्थात् देही जिस शरीरको प्राप्त होता है और जिस शरीरको परित्याग करता है, जिस प्रकार वायु आशय अर्थात कुसुमादिसे गन्धयुक्त सूक्ष्मांश ग्रहण करके जाता है उसी प्रकार (प्राप्त शरीर में पूर्वपरित्यक्त शरीरसे) इन सब इन्द्रियादिकोंको लेकर जाता है॥१६६॥यह देही श्रोत्र चक्षु त्वक् रसना और घ्राण इन बाह्येन्द्रियोंपर और अन्तःकरणपर अधिष्ठान करके विषयोका उपभोग