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श्रीविष्णुगीता।


रोचकं राजसायैव यथार्थ सात्त्विकाय वै ॥ १० ॥
विशेषतो हितकरं विज्ञेयं विबुधोत्तमाः ।
अतोऽधिकारभेदेन वचनं व्याहृतं सुराः ॥ ११ ॥
श्रुतौ पुराणे तन्त्रे च त्रिधा वर्णनरीतयः ।
दृश्यन्ते क्रमशः सर्वास्ता वच्मि भवतां पुरः ॥ १२ ॥
समाधिभाषा प्रथमा लौकिकी च तथाऽपरा।
तृतीया परकीयेति शास्त्रमाषा त्रिधा स्मृता ।। ९३ ॥
इतिहासमयी शश्वत्कर्णयोर्मधुराऽमला ।
मनोमुग्धकरी तद्वञ्चित्ताह्लादविवर्द्धिनी ॥ ९४ ॥
धर्मसिद्धान्तसंयुक्ता समासबहुला न हि ।
ज्ञेया सा परकीयेति शास्त्रवर्णनपद्धतिः ।। २५ ॥
इमामज्ञानिने तद्वत्तामसायाऽधिकारिणे ।
विशेषतो हितकरी प्राहुस्तत्तत्त्वदर्शिनः ॥ १६ ॥


रोचक वचन राजसिक अधिकारीके ही लिये और यथार्थ वचन सात्त्विक अधिकारी के लिये ही विशेषरूपसे हितकर है ऐसा जानना चाहिये, इसलिये हे देवतागण ! शास्त्रोमें अधिकारभेद से वचन कहेगये है ॥ 80-8१॥ वेद पुराण और तंत्रों में तीन प्रकारकी वर्णन शैलियां देखी जाती हैं उन सबोंको आपलोगोंके सामने में क्रमशः कहता हूँ॥ ९२ ।। पहली समाधिभाषा, दूसरी लौकिकभाषा और तीसरी परकीयभाषा, इस प्रकारसे शास्त्रकी भाषा तीन प्रकारकी कहीगई है ।। ९३॥ जिसमें निरन्तर इतिहास आवे, जो निर्मल और श्रुतिमधुर हो, जो मनको लुभानेवाली और इसी तरह चित्तके आह्लादको बढ़ानेवाली हो, जो धर्मसिद्धान्तोसे युक्त हो और जिसमें जटिलता न हो उस शास्त्रवर्णनकी पद्धतिको परकीयाजानना चाहिये ॥ ६४-५॥ इस पद्धतिके तत्त्वदर्शीगण इसको अज्ञानीके लिये और इसी तरह तामसिक अधिकारीके लिये विशेष हितकरी